Does the country need a Uniform Civil Code or not

Editorial : समान नागरिक संहिता की देश को जरूरत है भी या नहीं?

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Does the country need a Uniform Civil Code or not?

Does the country need a Uniform Civil Code or noth सर्वोच्च न्यायालय की ओर से समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए भाजपा शासित राज्यों द्वारा कमेटी गठित करने को सही ठहराने के बाद इस विषय पर जारी बहस को जहां विराम मिल गया है वहीं अब देश में समान नागरिक संहिता uniform civil code को लागू करने की भाजपा की मुहिम को बल मिला है। एक धर्मनिरपेक्ष देश में समान नागरिक संहिता को लागू करने पर सहज स्वीकृति बनना मुश्किल है, लेकिन इस पर बहस जारी रहनी चाहिए कि जब सभी धर्मों के लोग एक संविधान और कानून से शासित हैं, तब एक समान नागरिक संहिता क्यों नहीं होनी चाहिए। संहिता के निर्माण के पीछे का मंतव्य क्या है और इसके फायदे और नुकसान भी क्या होंगे, इस पर भी विचार होना जरूरी है।

इस समय सर्वोच्च न्यायालय Supreme Court की ओर से राज्यों में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए बनाई गई कमेटियों के औचित्य पर उठे सवालों का जवाब दिया गया है। माननीय न्यायालय का कहना है कि इन कमेटियों का गठन सही है और संविधान के तहत ऐसा करने का राज्यों को अधिकार है। अदालत का कहना है कि संविधान का अनुच्छेद 162 राज्य सरकार को ऐसा अधिकार देता है।

गौरतलब है कि उत्तराखंड और गुजरात Uttarakhand and Gujarat राज्यों में समान नागरिक संहिता लागू करने की घोषणा की गई है। भाजपा शासित हरियाणा में भी इसको लागू करने के सरकार के मंत्रियों के बयान आए हैं। वहीं उत्तर प्रदेश में भी योगी सरकार की ओर से कहा गया है कि वह भी समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए काम कर रही है। समान नागरिक संहिता को भाजपा की मुहिम बताया जा रहा है।

गुजरात के हालिया विधानसभा चुनावों में संहिता को लेकर भाजपा नेताओं की ओर से पुरजोर बयान आए थे। भाजपा अपने पूर्व कार्यकाल में ही इसकी तैयारी कर चुकी थी। अब सरकार की ओर संहिता को लागू करने के लिए कमेटी बना दी गई है। ऐसा ही उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव Himachal Pradesh Assembly Election के दौरान हुआ था, उस समय भी भाजपा नेताओं ने प्रचार के दौरान संहिता को लागू करने के बयान दिए थे। संहिता के जरिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार, लिंग आधारित समानता आदि के मुद्दों पर विचार किया जाएगा। इन कमेटियों के द्वारा संबंधित पर्सनल ला पर भी मंथन किया जाएगा।

मालूम हो, सर्वोच्च न्यायालय Supreme Court  में पांच और ऐसी याचिकाएं लंबित हैं, जिनमें सीधे तौर पर तो समान नागरिक संहिता लागू करने का मुद्दा नहीं उठाया गया है, लेकिन शादी, तलाक, भरण पोषण, उत्तराधिकार, गोद लेने के नियम आदि को समान करने की मांग की गई है। अब इन याचिकाओं में की गई मांगों को सम्मिलित रूप से देखा जाए तो ये समान नागरिक संहिता में आने वाले विषय हैं। दरअसल, इस सबके बावजूद यह बहस बंद नहीं होगी कि क्या वास्तव में देश को एक समान नागरिक संहिता की जरूरत है, और अगर ऐसा है तो इससे किसे फायदा होगा। धर्मों के अंदर वर्ग हैं, उन वर्गों में भी वर्ग हैं।

पुरातन काल से धर्म के अनुसार लोग जीवन जीते आए हैं, शादी-ब्याह, उत्तराधिकार, गोद लेना आदि के नियम रवायतों की भांति हैं। किसी कानून के जरिए अगर इनका निर्धारण होने लगेगा तो क्या यह किसी की निजी जिंदगी में सरकार का दखल नहीं होगा।  समान नागरिक संहिता के संबंध में अपने-अपने दावे और विरोध के अपने-अपने तर्क हो सकते हैं। लेकिन इतना स्पष्ट है कि इसके लागू होने से मुस्लिमों के साथ-साथ हिंदुओं की सामाजिक जिंदगी भी प्रभावित होगी।

भारत जैसे बेहद विविध और विशाल देश में समान नागरिक कानून को एकीकृत करना बेहद मुश्किल है। देश में संपत्ति और उत्तराधिकार के मामलों में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कानून हैं। पूर्वोत्तर भारत के ईसाई बहुल राज्यों जैसे कि नागालैंड और मिजोरम में अपने पर्सनल लॉ हैं और वहां पर अपनी प्रथाओं का पालन होता है न कि धर्म का। गोवा में 1867 का समान नागरिक कानून Uniform Civil Code of 1867 in Goa है जो कि उसके सभी समुदायों पर लागू होता है, लेकिन कैथोलिक ईसाइयों और दूसरे समुदायों के लिए अलग नियम हैं।

जैसे कि केवल गोवा में ही हिन्दू दो शादियां कर सकते हैं। वास्तव में समान नागरिक संहिता को राजनीतिक मुद्दे के रूप में इस्तेमाल करने के बजाय व्यावहारिक रूप से इसकी जरूरत को समझते हुए लागू करने पर विचार होना चाहिए। नागरिकों का जीवन सरल और व्यवस्थित हो, सरकारों को इसका प्रयास करना चाहिए। देश पहले ही धर्म और जातियों के जंजाल में फंसा हुआ है, समान नागरिक संहिता इस जंजाल को और सघन करेगी।

 

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