Deadlock between government and sarpanches should end

सरकार-सरपंचों में गतिरोध हो खत्म, सुधार समय की मांग

Panch

Deadlock between government and sarpanches should end

Deadlock between government and sarpanches should end अगर सरपंच ईमानदार हैं तो फिर उन्हें ई-टेंडरिंग से डर क्यों लग रहा है, भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए अगर ऐसा जत्न किया जा रहा है तो इसका स्वागत करने के बजाय विरोध क्यों हो रहा है। हरियाणा में नवनिर्वाचित सरपंचों ने अपना पदभार तक ठीक से नहीं संभाला लेकिन वे सरकार की ई-टेंडरिंग पॉलिसी का विरोध करने बैठ गए। ग्राम पंचायतों में 2 लाख रुपये से अधिक के विकास कार्य ई-टेंडरिंग से ही कराने की योजना है। अब इसमें क्या गलत है, लेकिन लोकतंत्र है, सरपंच भी निर्वाचित हैं, उन्हें भी विरोध दर्ज कराने का अधिकार है।

पंचायत चुनाव के परिणाम के बाद से ही प्रदेशभर में धरने पर हैं, और पंचायत विकास मंत्री देवेंद्र बबली के साथ उनकी पहली बैठक बेनतीजा रही। हरियाणा वह प्रदेश है, जहां पढ़ी-लिखी पंचायतों को कायम करने के लिए राज्य सरकार को सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़नी पड़ी थी। क्या राज्य सरकार का यह प्रयास अनुचित था। अब ई-टेंडरिंग उसके गले की फांस बन चुकी है।

यह मामला ऊन के गोले की भांति हो गया है। जिसका एक सिरा उधड़ा तो फिर यह आगे से आगे फैलता गया। पंचायत विकास मंत्री  निर्वाचित सरपंचों से अकेले ही मुकाबला करते नजर आए हैं। उनका जहां भी कार्यक्रम हुआ, वहीं विरोध में नारे लगे। इसी दौरान मंत्री की ओर से कुछ कड़वे बयान भी दिए गए।

हालात यहां तक पहुंचे कि उनकी ओर से सरपंचों के राइट टू रिकॉल का नियम लाने और सरपंचों का काम पंचों को देने की भी बात कही गई। हालांकि मुख्यमंत्री मनोहर लाल लगातार मंत्री के साथ खड़े नजर आए हैं, उन्होंने ई-टेंडरिंग का बचाव किया है और इससे पीछे हटने से भी इनकार किया है। लेकिन सरपंच लगातार विरोध की अलख जगाए हैं।

बेशक, राइट टू रिकॉल और सरपंचों का काम पंचों को देने संबंधी बयान बेहद सख्त माने जाएंगे, लेकिन क्या सरपंचों को भी यह नहीं समझना चाहिए कि अगर ई टेंडरिंग प्रणाली लागू होती है तो इसमें अनुचित क्या है? सरपंचों की ओर से 19 मांगें सरकार के समक्ष रखी गई हैं, आज के समय में मांगों को मनवाने का जरिया विरोध हो गया है। जो भी चीज अपने मुताबिक न हो, उसका विरोध लोकतांत्रिक हो गया है।

ई-टेंडरिंग प्रणाली कैबिनेट का फैसला है, लेकिन अब अगर अकेले मंत्री को सरपंचों के विरोध से निपटने के लिए लगा दिया गया है तो यह भी समझ से परे की बात है। इस मामले में अब सत्ताधारी दलों और मंत्री के बीच बयानों को लेकर जैसा ज्वार आया है, वह भी चिंताजनक है। राजनीतिक फायदे के लिए नीतिगत फैसलों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। यह भी सही है कि बातचीत के बजाय निर्वाचित प्रतिनिधियों की ओर से मंत्री के खिलाफ उग्र तेवर अपनाए गए हैं, खुद मुख्यमंत्री को भी विरोध झेलना पड़ रहा है।

हालांकि भाजपा और जजपा के राजनीतिक नेतृत्व की ओर से सरपंचों से ऐसा आग्रह नहीं किया गया है कि वे सरकार की नीतियों का अनुसरण करें, हालांकि मंत्री के एक बयान ने उन्हें सरकार और संगठन दोनों स्तरों पर अकेला कर दिया है। जजपा और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से पंचायत मंत्री बबली को नसीहत दी गई थी कि वे सरपंचों के संबंध में बयान न दें। इसके बाद अब बबली की ओर से दो टूक कहा गया है कि वे संगठन के लोग हैं, संगठन संभालें, सरकार हमें चलाने दें। बेशक, संगठन से ही सरकार बनती और चलती है। संगठन से ही सरकार को निर्देशन मिलता है। सरकार और संगठन शरीर और आत्मा की तरह हैं।

हालांकि ऐसी बहस को तूल देने की बजाय सरकार और गठबंधन दलों के राजनीतिक नेतृत्व को इस मामले का समाधान करने की कोशिश करनी चाहिए। अगर राजनीतिक नेतृत्व सरपंचों को समझाने का प्रयास करें तो यह सरकार के लिए भी सहूलियत वाली बात होगी। इन बयानों के मद्देनजर जिम्मेदारी अकेले सरकार की नहीं है, संगठन की भी है। इन बयानों के मद्देनजर जिम्मेदारी अकेले सरकार की नहीं है, संगठन की भी है। सरकार सफल हुई तो इसका श्रेय संगठन को जाएगा, लेकिन अगर सरकार निष्फल हुई तो इसका नुकसान संगठन को ही उठाना पड़ेगा।

सरकार कोई विशेषज्ञ कमेटी बना सकती है जोकि सरपंचों से बात करे और उनकी दुविधा का समाधान करे। वे भी निर्वाचित प्रतिनिधि हैं और लोकतंत्र का अटूट हिस्सा हैं। वहीं सरपंचों को ई-टेंडरिंग के बजाय दूसरी सार्थक मांगों को लेकर आंदोलन करना चाहिए। हालांकि यह भी जरूरी है कि प्रत्येक जनप्रतिनिधि पंच से लेकर सांसद तक पर राइट टू रिकॉल जैसा नियम लागू हो। सरपंचों की सुविधाओं में इजाफा होने से ग्राम पंचायतों का और बेहतर विकास सुनिश्चित किया जा सकता है। यह सुधार समय की मांग है। 

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