Why do medical students avoid serving in rural areas:

Editorial: मेडिकल छात्रों को आखिर ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा से परहेज क्यों

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Why do medical students avoid serving in rural areas

Why do medical students avoid serving in rural areas: सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक के मेडिकल छात्रों से अगर यह सवाल किया है कि आखिर वे ग्रामीण क्षेत्रों में एक वर्ष सेवा देने की राज्य सरकार की शर्त से छूट चाहते हैं तो ऐसा क्यों? इस मामले पर और बात करने से पहले यह समझा जा सकता है कि आखिर मेडिकल छात्रों की मांग क्या है। दरअसल, कर्नाटक सरकार की पॉलिसी के अनुसार मेडिकल काउंसिल में रजिस्ट्रेशन से पहले ग्रामीण क्षेत्रों में एक वर्ष सेवा देना जरूरी है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में पांच मेडिकल छात्रों जोकि प्राइवेट मेडिकल संस्थान से एमबीबीएस की डिग्री हासिल कर रहे हैं,  ने इस छूट की मांग की है।

हालांकि इस पर माननीय अदालत ने संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किया है। लेकिन उसकी ओर से जो सवाल पूछा गया है, वह अपने आप में बेहद अहम है। प्राइवेट मेडिकल डीम्ड यूनिवर्सिटी से डिग्री हासिल कर रहे इन युवाओं की जिम्मेदारी क्या शहर में रहकर अमीर मरीजों का इलाज करते हुए अपनी जेबें मोटी करना है। बेशक, मेडिकल की पढ़ाई हर कोई नहीं कर सकता। इस पेशे में आने के लिए बचपन से ही पढ़ाई में अव्वल बना रहना जरूरी होता है, वहीं फिर भारी भरकम फीस अदा करके सीट हासिल करते हुए पढ़ाई करनी होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों से पढ़ाई के दौरान यह बाध्यता समझ में आती है कि सरकार ग्रामीण इलाकों में जाकर उन मेडिकल छात्रों को इलाज करने को कहे, लेकिन प्राइवेट शिक्षण संस्थान से पढ़ाई करने के बावजूद ऐसी शर्त उन्हें परेशान कर रही है।

हालांकि इसमें दोराय कैसे हो सकती है कि आज ग्रामीण इलाकों में प्रशिक्षित डॉक्टरों की भारी कमी है और जनता बगैर इलाज के परेशानी उठा रही है। ऐसे में सरकार अगर यह नियम बना रही है कि प्राइवेट शिक्षण संस्थानों में मेडिकल की पढ़ाई के बाद ग्रामीण इलाकों में जाकर प्रैक्टिस करनी होगी तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है, अपितु यह तो समाज सेवा का एक अवसर है।

गौरतलब है कि हरियाणा में एमबीबीएस छात्रों और सरकार के बीच बॉन्ड पॉलिसी को लेकर गतिरोध हुआ था। इसके बाद रोहतक पीजीआई समेत दूसरे जिलों में धरने पर छात्र बैठ गए थे। राज्य सरकार ने एक पॉलिसी बनाई थी, जिसके तहत सात साल तक सरकारी नौकरी और बॉन्ड राशि 40 लाख रुपये अदा करनी थी। इसका मतलब यह था कि हरियाणा से एमबीबीएस करने वाले छात्र को सात साल प्रदेश में ही अपनी सेवाएं देनी होंगी और इसके लिए उसे इस राशि का बॉन्ड भरकर देना होगा यानी अगर सेवाएं नहीं तो बॉन्ड राशि जब्त कर ली जाएगी। हालांकि उस समय सामने आ रहा था कि देश के दूसरे राज्यों में भी बॉन्ड प्रणाली है, लेकिन जितनी राशि हरियाणा में तय की गई है, वह अपने आप में बहुत ज्यादा है। एक तो मेडिकल की पढ़ाई ही इतनी महंगी है, उस पर 40 लाख की बॉन्ड राशि का भार छात्रों और उनके परिजनों पर अनचाही आफत है। इसके बाद राज्य सरकार ने इस पॉलिसी को सही ठहराते हुए अनेक तर्क दिए थे, लेकिन फिर भी सवाल कायम था कि आखिर राज्य सरकार अपने यहां डॉक्टरों की कमी पूरी करने के लिए आखिर ऐसी पॉलिसी को ही क्यों हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है।

दरअसल, डॉक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए किसी भी राज्य सरकार की ओर से पॉलिसी के जरिये या फिर बॉन्ड प्रणाली के जरिये अगर अनुशासन लाने की कोशिश की जाती है, तो इसे विवाद के रूप में नहीं देखा जा सकता। मेडिकल की पढ़ाई का सीधा संबंध खास और आम मरीजों से है। भारत जैसे देश में सैकड़ों मरीजों के ऊपर एक डॉक्टर है, केंद्र एवं राज्य सरकारें मेडिकल सेवाओं को बेहतर बनाने का दावा करती हैं, लेकिन बगैर चिकित्सकों के यह कैसे संभव हो सकता है। एक राज्य सरकार के लिए अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की देखभाल सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। हरियाणा सरकार ने राज्य में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए विभिन्न प्रयास किए हैं, लेकिन डॉक्टरों की कमी से वह सेवाओं का विस्तार नहीं कर पा रही। अकसर यह देखने को मिलता है कि राज्य सरकार के चिकित्सा संस्थानों से डिग्री हासिल करके छात्र देश के अन्य राज्यों में या फिर निजी क्षेत्र में या फिर विदेश रवाना हो जाते हैं। एक सरकार अपने संसाधनों के जरिए छात्रों की पढ़ाई पर जो खर्च करती है, उसके लिए न सरकार को कुछ हासिल होता है और न प्रदेश के नागरिकों को। ऐसे में बॉन्ड पॉलिसी या फिर कोई अन्य प्रणाली बांध की तरह है जोकि छात्रों के राज्य से बाहर होने वाले प्रवाह को रोक सके।

 

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