India and Nepal relations

Editorial: भारत और नेपाल के संबंधों में हो हिमालय जैसी ऊंचाई

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India and Nepal relations

India and Nepal relations भारत और नेपाल के रिश्ते एक परिवार की भांति हैं। रामायण काल से यह रिश्ते चले आ रहे हैं, हालांकि नेपाल में जब भी सत्ता परिवर्तन होता है, और चीन समर्थक दल का वर्चस्व कायम होता है तो तनाव की नई परिभाषा तैयार हो जाती है। बीते वर्षों में नेपाल ने एकाएक भारत के प्रति जो रूख अपनाया था, वह भारत एवं नेपाल के भारत हितैषी नागरिकों को चिंतित कर रहा था।

हालांकि अब नेपाल का भारत के साथ आना अपने आप में बड़ी बात है। आजकल नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कुमार दहल प्रचंड भारत की यात्रा पर हैं और भारत ने उनकी जिस प्रकार से अगवानी की है, वह बताती है कि उसके लिए नेपाल क्या अहमियत रखता है और भविष्य में नेपाल के लिए भारत के पास क्या है।

नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के दौरान दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों को मजबूती देने का संकल्प लिया है। इस दौरान दोनों देश ऊर्जा, कनेक्टिविटी और व्यापार के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने को लेकर सहमत हुए हैं और कई क्षेत्रों में सहयोग की संभावनाओं को रेखांकित किया गया है, लेकिन इस यात्रा की सबसे बड़ी बात यह है कि दोनों देशों के संबंधों में पिछले कुछ समय से गर्मजोशी की जो कमी दिख रही थी, वह दूर होती दिख रही है।

दोनों निकटतम पड़ोसी देशों के बीच सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संबंधों की पुरानी और समृद्ध परंपरा रही है। इनके बीच पांच राज्यों- सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड- से लगती 1850 किलोमीटर लंबी सीमा है। सीमा के आर पार रोटी-बेटी का रिश्ता सदियों से बना हुआ है।  निश्चित रूप से यह ऐसी विरासत है जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। इन सबके बावजूद पिछले वर्षों में दोनों देशों के रिश्तों में असाधारण गिरावट देखी गई थी। जहां नेपाल में ऐसा माहौल बना कि भारत उस पर हावी होना चाहता है और उसके क्षेत्रों को हड़पना चाहता है, वहीं भारत में यह धारणा मजबूत हुई कि नेपाल के कुछ नेता चीन के इशारे पर भारत के लिए परेशानी खड़े करने वाली नीति अपनाने पर तुले हुए हैं।

बहरहाल, यह प्रशंसनीय है कि वह दौर बीत चुका है और अनावश्यक टकराव के बजाय आपसी सौहार्द और सहयोग के जरिए विकास को गति तेज देने की इच्छा नीति निर्माण के केंद्र में आई। पिछले साल दिसंबर में पद ग्रहण करने के बाद से ही प्रचंड इस बात को लेकर सतर्क दिखे कि उनके किसी कदम से भारत में भ्रांंति का जन्म न हो। यही वजह है कि उन्होंने नई दिल्ली आने से पहले चीन के ‘बोआओ फोरम फॉर एशिया’ का निमंत्रण ठुकरा दिया। चीन का अनेक छोटे देशों के प्रति जो नजरिया सामने आ रहा है, वह इन देशों को डरा रहा है। चीन अपने कर्ज जाल में उन्हें फंसा कर अपने मंसूबे पूरे करने की चेष्टा कर रहा है।

नेपाल की नई सरकार अगर इस बात को समझ गई है तो यह उचित ही है। हालांकि अभी काफी काम होना बाकी है। भारत के लिए नेपाल की अहमियत द्विपक्षीय रिश्तों के संदर्भ में तो है ही, पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में शांति और सहयोग का माहौल बनाए रखने के लिहाज से भी है। प्रचंड की इस यात्रा में यह बात रेखांकित हुई कि परस्पर सहयोग, सम्मान और विश्वास का रिश्ता न केवल इन दोनों देशों के लिए बल्कि इस पूरे क्षेत्र में शांति और समृद्धि सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है। अगर बिजली का ही उदाहरण लें तो भारत नेपाल से बिजली खरीद ही रहा है, नेपाल भारत के रास्ते बांग्लादेश को भी बिजली की सप्लाई करना चाहता है। बांग्लादेश की भी दिलचस्पी इस प्रोजेक्ट में है।

गौरतलब है कि दोनों देशों में सीमा विवाद भी हैं, जो कुछ समय पहले उग्र रूप से सामने आए थे, लेकिन ऐसे विवाद शांति, सहयोग और विश्वास के माहौल में बातचीत के जरिए बेहतर ढंग से सुलझाए जा सकते हैं। इसलिए दोनों पक्षों ने उन पर जोर देने के बजाय सहयोग और सामंजस्य बढ़ाने की नीति अपनाई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी है कि दोनों देश अपने रिश्तों को हिमालय पर्वत जैसी ऊंचाई देना चाहते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी और प्रचंड के बीच कुल सात समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए हैं जबकि छह परियोजनाओं की शुरुआत की गई है। इन परियोजनाओं में कई ऐसी हैं, जिनकी मांग दो दशक से नेपाल सरकार की ओर से की जा रही थी। भारत ने नेपाल में एक उर्वरक प्लांट लगाने की मांग को स्वीकार कर लिया है। निश्चित रूप से भारत और नेपाल के बीच संबंधों का यह नया अध्याय है, इस दौरान दोनों देशों ने एक साथ चलने का संकल्प लिया है। नेपाल के लिए यह यात्रा और भी मायने रखती है, उसकी शांति और समृद्धि का भारत से सीधा संबंध है। 

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