must continue in the justice system

Editorial: न्याय प्रणाली में जारी रहना चाहिए सुधारों का दौर

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must continue in the justice system: केंद्रीय कानून मंत्री के पद से किरण रिजिजू को हटाया जाना अपने आप में अप्रत्याशित घटना है। क्या यह माना जाए कि रिजिजू को इस पद से हटाकर न्यायपालिका को संतुष्ट करने की कोशिश की गई है? किरण रिजिजू ऐसे कानून मंत्री के रूप में याद रखे जाएंगे, जिन्होंने न्यायपालिका के संबंध में मुखरता से अपनी बात रखी और इसकी परवाह किए बगैर कि उसके परिणाम क्या सामने आएंगे। हालांकि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया, कॉलेजियम प्रणाली को लेकर उन्होंने जैसी रार सर्वोच्च न्यायालय से ठानी थी, उससे यह प्रतीत हो रहा था कि इसमें केंद्र सरकार का भी मंतव्य है।

देश में यह संदेश भी जा रहा था कि अब न्यायपालिका जिसके संबंध में कुछ कहते हुए न जाने कितनी बार सोचने की जरूरत पड़ती है, में सुधार की गुंजाइश और तेज होगी। बेशक, यह प्रक्रिया किसी न किसी रूप में जारी रहेगी, लेकिन किरण रिजिजू ने जैसी आक्रामकता बतौर कानून मंत्री दिखाई, उससे लगता है न्यायपालिका में प्रबल नाराजगी बढ़ रही थी। मोदी सरकार को देश में व्यापक सुधारों के लिए जाना जाता है, लेकिन हालिया कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हार से जैसे पार्टी कुछ सबक ले रही है। उसका मंतव्य सॉफ्ट पॉलिटिक्स का हो जाए तो इसमें कुछ शंका नहीं होनी चाहिए।

हालांकि निष्पक्ष रूप से इस पर विचार होना चाहिए कि क्या किरण रिजिजू ने जो साहस बतौर कानून मंत्री दिखाया था, क्या उसे तिरोहित करने का काम उनका पद बदल कर नहीं किया गया है। इससे पहले रविशंकर प्रसाद को भी एकाएक कानून मंत्री के पद से हटा दिया गया था, जिसकी वजह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाई है।

निश्चित रूप से बीते कुछ समय के दौरान सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव बढ़ा था। हालांकि आज के दौर की न्यायपालिका बीते दौर से बहुत सक्षम और निष्पक्ष है। आज का समय परंपराओं से बाहर आकर लोकतंत्र में जनता जर्नादन के ज्यादा से ज्यादा कल्याण का है। ऐसे में वह कार्यपालिका हो या फिर न्यायपालिका, उन्हें खुद में परिवर्तन लाते हुए वह सब जत्न करने की जरूरत है, जोकि आज के समय में जरूरी है। बेशक, किरण रिजिजू यही करते नजर आ रहे थे। लेकिन उनके ये बयान जिसमें उन्होंने जजों की नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया संविधान से परे होना, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की मौजूदा प्रणाली से खुश न होना, कुछ रिटायर्ड जज एंटी इंडिया ग्रुप का हिस्सा बन गए हैं, की वजह से यह समझा जाने लगा कि वे न्याय प्रणाली पर हमलावर हैं, लेकिन इनके पीछे सुधार की गुंजाइश तलाशना भी मंतव्य हो सकता है।

हालांकि कॉलेजियम प्रणाली को लेकर बहस नई नहीं है, इस संबंध में खुद सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति इतिहास में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस करके आरोप लगा चुके हैं। मौजूदा न्यायिक प्रणाली में कौन जज कहां है और किस वजह से है, इसका निर्धारण करना मुश्किल ही नहीं है, अपितु असंभव कार्य है। जब भी जजों की नियुक्ति पर सवाल उठते हैं तो इसे न्यायप्रणाली पर हमला करार दे दिया जाता है। हालांकि भारतीय न्याय व्यवस्था के सच के संबंध में जानना प्रत्येक देशवासी का अधिकार है, फिर जब कोई ऐसे सवाल खड़े कर रहा है और वह देश का कानून मंत्री भी है तो क्यों नहीं उन्हें गंभीरता से लेते हुए आगे बढ़ा जाता। क्या ऐसे प्रश्नों को टालना ही उनका समाधान नहीं समझ लिया गया है?

वास्तव में ऐसी शब्दावली होनी ही नहीं चाहिए कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव को टालने के लिए एक और कानून मंत्री को बदल दिया गया। अब बेशक, इसका कहीं से जवाब भी नहीं मिलेगा कि आखिर क्यों एक और कानून मंत्री को एकाएक और संभवतया अपमानजनक तरीके से बदल दिया गया, लेकिन प्रधानमंत्री के पास इसके सर्वाधिकार हैं, वे कभी ऐसा कर सकते हैं। निश्चित रूप से इसमें भी कुछ बेहतर करने की चाह रखते हुए ऐसा किया गया होगा।

प्रधानमंत्री ने अर्जुन राम मेघवाल को कानून मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार सौंपा है, और राज्यमंत्री के तौर पर विभाग में कार्य करेंगे। इसके पीछे माना जा रहा है कि कैबिनेट मंत्री की तरह वे स्वतंत्र होकर निर्णय नहीं ले पाएंगे, उनका प्रत्येक निर्णय प्रधानमंत्री कार्यालय में निर्धारित होगा, जिसके बाद वह सामने आ पाएगा। दरअसल, देश में इसकी स्वतंत्रता एक नागरिक और एक कानून मंत्री को जरूर होनी चाहिए कि वह न्याय प्रणाली के निर्णयों पर सवाल उठा सकें। रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट को आखिर क्यों उसकी मर्यादा और लक्ष्मण रेखा स्मरण कराई थी, उस पर विचार जरूरी है। उन्होंने न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी कानून को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खारिज किए जाने पर सवाल उठाए थे, हालांकि ऐसे आयोग की प्रासंगिकता क्यों नहीं होनी चाहिए। बहरहाल, आशा की जानी चाहिए कि न्याय प्रणाली में सुधारों को दौर जारी रहेगा। 

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