Governors and governments

राज्यपाल और सरकारें अपने-अपने दायित्व पर दें ध्यान

Banwari-Lal

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Governors and governments पंजाब में सत्ताधारी आम आदमी पार्टी और राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित के बीच टकराव के दौरान सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी अहम है कि राज्यपाल को राजनीति में नहीं पडऩा चाहिए। हालांकि यह बात संविधान की नजर से नई नहीं है। संविधान में पहले से यह उल्लेखित है कि राज्यपाल का पद क्या है।

राज्यपाल Governor की भूमिका उस पद पर बैठे राजनेता के द्वारा स्वयं निर्मित की जाती रही है। बेशक, किसी राज्य में राज्यपाल का चयन पूरी तरह से राजनीतिक होता है, केंद्र में सत्ताधारी राजनीतिक दल की पसंद ही संबंधित राज्य में राज्यपाल होता है। ऐसे में राज्यपाल को पूरी तरह से अपने नियोक्ताओं की मंशा के अनुरूप कार्य करना होता है। अब सर्वोच्च न्यायालय ने जो बात कही है, वह इसी संदर्भ में है, जोकि उचित भी है।

जाहिर है, एक राजनीतिक दल अगर सरकार बनाने का दावा पेश करता है तो उसे इसका अवसर मिलना चाहिए, हालांकि बहुधा यह होता रहा है कि राज्यपाल किसी अन्य धड़े को इसका अवसर प्रदान कर देता है। सरकारों के गिरने की स्थिति में भी राज्यपाल की ही भूमिका होती है, क्योंकि राजभवन की मंशा के विपरीत सरकार का गठन नहीं हो सकता।

हालांकि पंजाब में आजकल राज्यपाल और मुख्यमंत्री Governor and Chief Minister के बीच जिसे नियुक्त और निर्वाचित के रूप में देखा जा रहा है, विवाद पर पूरे देश की नजर ठहर गई हैं। सवाल यह है कि मुख्यमंत्री भगवंत मान की ओर से राज्यपाल पर पलटवार क्या संविधान के दायरे में है। एक निर्वाचित सरकार का कार्यकारी मुखिया मुख्यमंत्री है लेकिन संवैधानिक मुखिया तो राज्यपाल है। विधानसभा सत्र के दौरान राज्यपाल अपने अभिभाषण में यही कहते हैं कि मेरी सरकार यह प्रस्तावित करती है कि...। अगर राज्यपाल की भूमिका पर इस प्रकार से एक निर्वाचित सरकार सवाल उठाएगी तो इसका आशय गलत निकलेगा।  

देश में चाहे वह कार्यपालिका है या विधानपालिका या फिर न्यायपालिका, उन्हें संविधान के मुताबिक ही चलना है। फिर यह कहना कहां तक उचित है कि राज्य के संबंध में फैसले लेने का अधिकार इलेक्टेड यानी निर्वाचित को है न कि सिलेक्टेड यानी नियुक्त किए को। अब निर्वाचित सरकार हो गई और नियुक्त राज्यपाल। लेकिन यह व्यवस्था अकेले राज्यपाल या फिर केंद्र सरकार ने तो नहीं बनाई है, यह व्यवस्था संविधान ने तैयार की है, फिर राज्यपाल की मौजूदगी से इनकार करना संविधान की अनदेखी करना होगा।

एक राज्य में सरकार का गठन तब होता है, जब बहुमत वाले दल से किसी नेता को राज्यपाल शपथ दिलाते हैं। क्या बगैर शपथ लिए कोई नेता मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हो सकता है। विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा साबित करने का काम तो बाद में होता है, लेकिन सर्वप्रथम संबंधित राज्य के राज्यपाल के समक्ष संबंधित नेता को अपने बहुमत का आंकड़ा पेश करना होता है।

राज्य में विधानसभा सत्र को आयोजित करने की अनुमति भी राज्यपाल से ही हासिल करनी होती है। तमाम बिल पारित करने के बावजूद राज्यपाल की मंजूरी के लिए भेजे जाते हैं, जिन पर आपत्ति दर्ज कर वे वापस भेज सकते हैं। हालांकि आखिरकार राज्यपाल को अपने हस्ताक्षर करने ही पड़ते हैं, लेकिन क्या कोई सरकार बगैर राज्यपाल के अपने बिलों को पारित करके उन्हें लागू कर सकती है? अगर उन बिलों को अदालत में चुनौती दी गई तो क्या राज्यपाल की ओर से उन्हें पारित किए जाने की शर्त पूरी होने या न होने की स्थिति पर विचार नहीं होगा।

वास्तव में मौजूदा परिस्थिति में राज्यों को ज्यादा अधिकार देने की वकालत की जा रही है। आखिर यह वकालत इस समय जब देश के केंद्र में कांग्रेस विरोधी पार्टी की सरकार है, तभी क्यों उठ रही है। जिस समय कांग्रेस की केंद्र में सरकारें होती थीं, रातों-रात राज्यों में सरकारें बदल जाती थी। उस समय भी राज्यों को ज्यादा शक्तिवान बनाने की जरूरत बताई जाती थी।

हालांकि मौजूदा केंद्र सरकार के समय किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन नहीं लगा है और न ही किसी राज्य में विरोधी पार्टी की सरकार गिराई गई है। तब केंद्र की ओर से तैनात राज्यपाल के संबंध में ऐसी बहस को पैदा करके आखिर कौन अपना स्वार्थ चाह रहा है। क्या राज्यपाल की ओर से उठाए गए सवालों का जवाब देकर राज्य सरकार इस बहस को तूल देने से नहीं बच सकती। जाहिर है, एक निर्वाचित सरकार राजनीतिक रूप से जनता के प्रति उत्तरदायी होगी लेकिन संवैधानिक रूप से वह राज्यपाल के प्रति भी उत्तरदायी है। राज्यपाल की भूमिका पर बहस के बजाय सरकारों को अपने दायित्व पर फोकस करना चाहिए।  

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