The country will run by the constitution

Editorial: देश संविधान से ही चलेगा, चेतावनी देती हैं टकराव को जन्म

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The country will run by the constitution

The country will run by the constitution कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच देखने को मिल रहे टकराव  के बीच केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री किरण रिजिजू का यह कहना सर्वथा उपयुक्त और न्यायसंगत है कि देश संविधान से ही चलेगा और यहां कोई किसी को चेतावनी नहीं दे सकता। वास्तव में एक लोकतांत्रिक देश में संविधान ही सर्वोच्च होता है और सभी प्रतिष्ठान उसके मार्गदर्शन में काम करते हैं, तब इस प्रकार की राय रखना कि कोई किसी को दबा रहा है, अनुचित और अप्रासंगिक है। गौरतलब है कि पिछले दिनों हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के स्थानांतरण के लिए की गई सिफारिशों को मंजूरी देने में देरी होने पर सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस एसके कौल और एएस ओका की पीठ ने चेतावनी दी थी कि हमें ऐसा स्टैंड लेने को मजबूर न करें जो सरकार को असहज कर दे।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय Supreme Court देश में संविधान का रखवाला है लेकिन इस पर बेहद विनम्रता से बहस होनी चाहिए कि आखिर इस तरह की शब्दावली के प्रयोग की क्या जरूरत पड़ गई, जिसमें सरकार को यह कहा जाए कि सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा स्टैंड लेने को मजबूर न किया जाए। क्या एक लोकतांत्रिक प्रणाली में इस प्रकार के शब्दों के लिए जगह होनी चाहिए?

कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच हितों को लेकर यह टकराव पहले भी होते रहे हैं, लेकिन आजकल जिस प्रकार से दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने हैं, वह गंभीर मामला है। हालांकि यह भी सही है कि दोनों की शक्तियों को लेकर उपजे सवालों पर बहस हो और वह किसी नतीजे पर पहुंचे। कॉलेजियम प्रणाली पर उठे सवाल रचनात्मक हैं और उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। सरकार अगर जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाना चाहती है तो इसमें न्यायपालिका को अपने अधिकार क्षेत्र में दखल क्यों नजर आ रहा है।

सर्वोच्च न्यायालय Supreme Court कॉलेजियम जजों की नियुक्ति पर अपना सर्वाधिकार कायम रखना चाहता है, लेकिन यह भी सच है कि इन नियुक्तियों में पसंद और नापसंद बहुत चलती है। क्या यह जरूरी नहीं है कि देश की जनता भी यह समझ सके कि आखिर न्यायपालिका में न्यायधीशों की नियुक्ति का आधार क्या है। केंद्रीय विधि मंत्री रिजिजू का यह कहना प्रासंगिक है कि देश के मालिक देश के लोग हैं। देश के अंदर वह चाहे कार्यपालिका है या फिर विधानपालिका या फिर न्यायपालिका, सभी का एकमात्र मकसद जनता की सेवा करना है। जाहिर है, यह सोच अपने आप में पूरे देश की आत्मा का प्रतिबिंब है। भारत में यह विचार ही पैदा नहीं हो सकता है कि कोई एक प्रतिष्ठान इतना प्रबल होगा कि उसके समक्ष दूसरे दमित हो जाएंगे। फिर चाहे वह न्यायपालिका ही क्यों न हो। न्यायपालिका को अपने उस सुरक्षित आवरण से बाहर आने की जरूरत है, जिसमें उससे सवाल पूछना अपराध माना जाता है।

 बीते दिनों उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ Vice President Jagdeep Dhankhar की ओर से बयान आया था, जिसमें संसद को सर्वोच्च बताया गया है। इस बयान को लेकर देश में बहस जारी है। इसी दौरान उपराष्ट्रपति की ओर से न्यायपालिका की आलोचना करते हुए उसे दिखावे और खुद को श्रेष्ठ साबित करने की प्रवृति न करने की नसीहत दी गई है।

जाहिर है, इस प्रकार की टिप्पणियों का आधार राजनीतिक ज्यादा नजर आता है। लोकतंत्र में संसद का अपना महत्व है, लेकिन वह सर्वोच्च नहीं हो सकती, क्योंकि संसद हवा में नहीं है, उसका मूल वह संविधान है, जिसने उसे स्थापित किया है। ऐसे में संसद भी संविधान की मूल भावना के विरुद्ध नहीं जा सकती, फिर इस प्रकार की भावना व्यक्त करना कि संसद सर्वोच्च है, दंभपूर्ण सोच ही कही जाएगी। वहीं इस दौरान न्यायपालिका के दिखावे और खुद को श्रेष्ठ साबित करने जैसे बयान भी आलोचना की नजर से देखे जाने चाहिएं। अभी विधि मंत्री किरण रिजिजू का यह कहना इन सभी विवादों और बहसों को अंतिम अध्याय साबित होता है कि देश संविधान ही चलेगा।

आखिर उपराष्ट्रपति को यह कहने की क्या आवश्यकता है कि देश में संसद सर्वोच्च है, वहीं न्यायपालिका को भी यह चेताने की जरूरत क्यों पड़ रही है कि उसे ऐसा स्टैंड लेने को मजबूर न किया जाए जिससे सरकार असहज हो? क्या संविधान के निर्माताओं ने इसकी कल्पना की थी कि एक दिन इस पर भी बहस होगी कि संविधान बड़ा है या संसद या फिर न्यायपालिका पर कार्यपालिका अपना अंकुश रखे और बदले में न्यायपालिका ऐसा पलटवार करे जोकि टकराव का भयंकर आधार बनता हो।

1973 के केशवानंद भारती मामले में यह स्पष्ट हो चुका है कि संविधान की मूल संरचना अपरिवर्तनीय है। संविधान सर्वोच्च है, संसद नहीं। जाहिर है, देश की जनता भी यह कभी नहीं चाहेगी कि सभी शक्तियां संसद के हाथों में निहित हो जाएं। मामला सभी प्रतिष्ठानों के अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए सर्वश्रेष्ठ देने का है। संविधान की रोशनी में ही सभी को आगे बढ़ना है, फिर हितों का यह टकराव नहीं होना चाहिए। 

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