rajasthan crisis congress leadership test

राजस्थान संकट कांग्रेस नेतृत्व की परीक्षा

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rajasthan crisis congress leadership test

Rajasthan crisis congress leadership test : कांग्रेस और विडम्बना एक-दूसरे के पर्याय हो गए लगते हैं। पार्टी अपने अंदर सबसे बड़े लोकतंत्र के होने का दावा करती है, लेकिन एक अदद अध्यक्ष का चुनाव नहीं कर पाती। देश पर फिर से शासन करने का सपना देख रही पार्टी के वरिष्ठ नेता एक-एक करके उसे छोड़ रहे हैं, लेकिन फिर भी वह ताकतवर होने का दिखावा कर रही है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव से पहले राजस्थान में जो घटनाक्रम चल रहा है, वह पार्टी के लिए न केवल शर्मनाक है अपितु यह साबित भी कर रहा है कि पार्टी नेताओं के लिए अनुशासन अब कोई मायने नहीं रखता। वे एक नेता की मर्जी के मुताबिक जहां राष्ट्रीय नेतृत्व को आंखें दिखाते हैं, वहीं उसके आदेश की अवहेलना करते हुए आपस में सिर फुटव्वल को तैयार रहते हैं। राजस्थान में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं, इससे पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए यह प्रहसन कांग्रेस की आंतरिक स्थिति को बयान कर देता है।

राजस्थान में बीते विधानसभा चुनाव में सचिन पायलट ने जो मेहनत की थी, उसके बाद युवाओं ने कांग्रेस को अपना समर्थन दिया था। उस समय कहा गया था कि प्रदेश में कांग्रेस पायलट की वजह से सत्ता में लौटी है। तब सचिन पायलट ही मुख्यमंत्री पद के सबसे मुफीद चेहरे थे, लेकिन अशोक गहलोत की दिल्ली दरबार से अति नजदीकियों ने पायलट के सपनों पर तुषारापात करा दिया था और उन्हें उपमुख्यमंत्री की कुर्सी देकर चुप करा दिया गया। कांग्रेस आलाकमान आखिर उस अन्याय को कैसे स्वीकार कर रहा है, जोकि सचिन पायलट के साथ हो चुका है। उन्हीं पायलट की यह कशक थी कि उन्होंने 2020 में विद्रोह करते हुए अपने लिए बड़ी कुर्सी की मांग की और हरियाणा के मानेसर तक आ गए। अगर प्रदेश में सबकुछ पहले से न्यायोचित हुआ होता तो न विद्रोह होता और न ही पार्टी आलाकमान पर एकतरफा होने के आरोप लगते। उस समय आलाकमान ने भी अशोक गहलोत की ही मदद की और सचिन पायलट पर पार्टी से गद्दारी का आरोप मढ़वा दिया। अब अशोक गहलोत यही कहते हुए पायलट पर वार कर रहे हैं कि बाकी किसी को भी बना दो लेकिन एक गद्दार को नहीं। क्या अपने हक के लिए आवाज बुलंद करना गद्दारी है, कांग्रेस के अंदर सेवा कोई करता है और मेवा कोई और खा जाता है। पंजाब में भी कांग्रेस ने यही किया था, अगर उसने नवजोत सिंह सिद्धू को सामने रखकर चुनाव लड़ा होता तो पूरी तरह संभव है कि कांग्रेस आज भी पंजाब की सत्ता में होती। सिद्धू पर रोडरेज का केस चल रहा था, लेकिन उनकी साफ छवि को पंजाब के लोग पसंद कर रहे थे।

कांग्रेस में राजस्थान प्रकरण के सामने आने की एक वजह यह भी है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एक साथ दोनों कुर्सियों पर काबिज रहना चाहते हैं। यानी राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बनना चाहते हैं, बेशक अब इतने बवाल के बाद उनकी राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने की मनोकामना पूरी न हो, लेकिन वे राजस्थान के मुख्यमंत्री बने रह सकते हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि आलाकमान की ओर से भेजे पर्यवेक्षकों ने जब विधायक दल की बैठक बुलाई तो उसमें गहलोत समर्थक विधायक नहीं पहुंचे। क्या अपनी ही आलाकमान जिसके एक इशारे पर मुख्यमंत्री अपनी कुर्सी छोडऩे को तैयार होते रहे हैं, अब विधायक इतने सक्षम हो गए हैं कि उसके निर्देशों की अवहेलना करें। अगर राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव कांग्रेस के लिए इतना जटिल है, तो फिर उसे इसको टाल ही देना चाहिए। क्योंकि पार्टी को अपने यहां ऐसे नेता ही नहीं मिल रहे हैं जोकि खुशी-खुशी अध्यक्ष बनना चाहें। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि उन्हें पता है कि बेशक अध्यक्ष वे होंगे, लेकिन चलेगी तो गांधी परिवार की ही। तब उनका बनना या न बनना कोई अर्थ नहीं रखता। हालांकि अगर कोई एक प्रदेश का मुख्यमंत्री है तो वह राष्ट्रीय अध्यक्ष से कहीं ज्यादा पावरफुल रहेगा, क्योंकि सरकार की चाबी उसके पास होगी। बेशक, यह समय अशोक गहलोत के लिए मुश्किल वाला है, उनकी महत्वाकांक्षाओं ने उन्हें न घर का छोड़ा है और न ही घाट का।

सियासत में कब हवा अपना रुख बदल ले, यह कोई जानता। कल तक जिन सचिन पायलट की खिलाफत हो रही थी, आलाकमान के सख्त रुख के बाद अब उनकी ओर हवा बहने लगी है। आलाकमान भी कमोबेश यह जानता है कि गहलोत की वजह से पायलट के विद्रोही स्वर रहे हैं, हालांकि सिर्फ राजस्थान ही नहीं अपितु देश की जनता सचिन पायलट में एक काबिल नेता को पाती है। बेशक, गहलोत की तुलना में उनके पास उतना राजनीतिक अनुभव नहीं है, लेकिन यह बात आज के संदर्भ में कोई मायने नहीं रखती है। आज का दौर युवा पीढ़ी का है, तब कांग्रेस भी क्यों नहीं अशोक गहलोत को दिल्ली बुला लेती और राजस्थान में पायलट को आगे बढऩे को कहती। अगर ऐसा होता है तो निश्चित रूप से राजस्थान का युवा पायलट को पसंद करेगा और कांग्रेस के लिए अगले वर्ष होने वाले चुनाव की राह आसान हो जाएगी।

कांग्रेस के अंदर इस घमासान को बेवजह ही कहा जाएगा। पार्टी की स्थिति ऐसी हो गई है कि वह खुद ही अपने लिए खाई खोदती है और गिरने के बाद उससे बाहर निकलने के लिए हाथ-पैर मारती है। वह इसके लिए अपने विरोधी (भाजपा) को जिम्मेदार ठहराती है। वह चिंतन शिविर भी आयोजित करती है तो उसमें अपनी कमियों से ज्यादा विरोधी (भाजपा) के संबंध में चर्चा करती है। भारत जोड़ो यात्रा का संदर्भ क्या है, पार्टी यह बताते हुए भाजपा पर देश तोडऩे का आरोप मढ़ती है। क्या यह ज्यादा जरूरी नहीं है कि पार्टी अपने आप पर फोकस करे और उन कमियों को पता लगाए जोकि उसके रास्ते की अड़चन बने हुए हैं। कांग्रेस को अपना आज और भविष्य खुद लिखना है, यह काम उसका विरोधी (भाजपा) उसके लिए नहीं करेगा।