विशेष धर्म सभा में बताया कि श्रुत पंचमी पर्व मनाने का महत्व

विशेष धर्म सभा में बताया कि श्रुत पंचमी पर्व मनाने का महत्व

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विशेष धर्म सभा में बताया कि श्रुत पंचमी पर्व मनाने का महत्व

जैन समाज में है इस पर्व का विशेष स्थान- अंशुल भईया

यमुनानगर, 4 जून (आर. के. जैन):
श्रुत पंचमी के शुभावसर पर एक विशेष धर्म का आयोजन किया गया। श्रुत पंचमी पर्व क्यों मनाया जाता है, इस संबंध में बाल ब्रह्मचारी अंशुल भईया ने जानकारी देते हुये बताया कि प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को जैन समाज में श्रुतपंचमी पर्व मनाया जाता है। इस पर्व को मनाने के पीछे एक इतिहास है। उन्होंने बताया कि श्री वद्र्धमान जिनेन्द्र के मुख से श्री इन्द्रभूति गौतम गणधर ने श्रुत को धारण किया। उनसे सुधर्माचार्य ने और उनसे जम्बू नामक अंतिम केवली ने ग्रहण किया। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद इनका काल 62 वर्ष है। श्रुतावतार की यह परम्परा धवला टीका के रचयिता आचार्य वीरसेन स्वामी के अनुसार है। नन्दिसंघ की जो प्राकृत पट्टावली उपलब्ध है उसके अनुसार भी श्रुतावतार का यही क्रम है। केवल आचार्य के कुछ नामों में अंतर है, फिर भी मोटे तौर पर उपयुक्त कालगणना के अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण से 683 वर्षों के व्यतीत होने पर आचार्य धरसेन हुए, ऐसा स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है। नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार धरसेनाचायार्य का काल वीर निर्वाण से 614 वर्ष पश्चात जान पड़ता है।

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उन्होंने आगे बताया कि आचार्य धरसेन अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे। जिस प्रकार दीपक से दीपक जलाने की परम्परा चालू रहती है उसी प्रकार आचार्य धरसेन तक भगवान महावीर की देशना आंशिक रूप में पूर्ववत धाराप्रवाह रूप में चली आ रही थी। आचार्य धरसेन काठियावाड में स्थित गिरिनगर की चन्द्र गुफा में रहते थे। जब वे बहुत वृद्ध हो गए और अपना जीवन अत्यल्प अवशिष्ट देखा तब उन्हें यह चिंता हुई कि अवसर्पिणी काल के प्रभाव से श्रुतज्ञान का दिन प्रतिदिन ह्रास होता जाता है। इस समय मुझे जो कुछ श्रुतप्राप्त है, उतना भी आज किसी को नहीं है, यदि मैं अपना श्रुत दूसरे को नहीं दे सका तो यह भी मेरे ही साथ समाप्त हो जायेगा। उस समय देशेन्द्र नामक देश में वेणाकतटपुर में महामहिमा के अवसर पर विशाल मुनि समुदाय विराजमान था। मुनि संघ ने आचार्य धरसेन के श्रुतरक्षा सम्बंधी अभिप्राय को जानकर दो मुनियों को गिरिनगर भेजा। वे मुनि विद्याग्रहण करने में तथा उसका स्मरण रखने में समर्थ थेए अत्यंत विनयी तथा शीलवान थे।

उनके देशए कुल और जाति शुद्ध थे और वे समस्त कलाओं में पारंगत थे। जब वे दो मुनि गिरिनगर की ओर जा रहे थे तब यहाँ श्री धरसेनाचार्य ने ऐसा शुभ स्वप्न देखा कि दो श्वेत वृष आकर उन्हें विनयपूर्वक वंदना कर रहे हैं। उस स्पप्न से उन्होंने जान लिया कि आने वाले दोनों मुनि विनयवानए एवं धर्मधुरा को वहन करने में समर्थ हैं। जब उनकी विद्या सिद्ध हो गई तब वहां पर उनके सामने दो देवियां आई। उनमें से एक देवी के एक ही आँख थी और दूसरी देवी के दाँत बड़े.बड़े थे। मुनियों ने जब सामने देवियों को देखा तो जान लिया कि मंत्रों में कोई त्रुटि है, क्योंकि देव विकृतांग नहीं होते हैं। तब व्याकरण की दृष्टि से उन्होंने मंत्र पर विचार किया। जिसके सामने एक आँख वाली देवी आई थी उन्होंने अपने मंत्र में एक वर्ण कम पाया तथा जिसके सामने लम्बे दाँतों वाली देवी आई थी उन्होंने अपने मंत्र में एक वर्ण अधिक पाया। दोनों ने अपने.अपने मंत्रों को शुद्ध कर पुन: अनुष्ठान कियाए जिसके फलस्वरूप देवियां अपने यथार्थ स्वरूप में प्रकट हुई तथा बोली कि हे नाथ आज्ञा दीजिए हम आपका क्या कार्य करें दोनों मुनियों ने कहा देवियों हमारा कुछ भी कर्य नहीं है।

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हमने तेा केवल गुरूदेव की आज्ञा से ही विद्यामंत्र की आराधना की है। ये सुनकर वे देवियां अपने स्थान को चली गई। मुनियों की इसी कुशलता से गुरू ने जान लिया कि सिद्धांत का अध्ययन करने के लिए वे योग्य पात्र है। आचार्य श्री ने उन्हें सिद्धांत का अध्ययन कराया। वह अध्ययन अषाढ शुक्ल एकादशी के दिन पूर्ण हुआ। इस दिन देवों ने दोनों मुनियों की पूजा की। एक मुनिराज के दांतों की विषमता दूर क देवों ने उनके दांत कुंदपुष्प के समान सुंदर किया इसलिए आचार्यश्री ने उनका पुष्पदन्त यह नामांकरण किया तथा दूसरे मुनिराज की भी भूत जाति के देवों ने तूर्यनाद जयघोष, गंधमाला, धूप आदि से पूजा की इसलिए आचार्यश्री ने उन्हें भूतबलि नाम से घोषित किया। जिनवाणी का स्वाध्याय का नियम करें क्योंकि यही उन पूर्वाचार्यों के प्रति सच्ची विनयांजलि होगी जिन्होंने अपनी साधना और जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षणों को जिनवाणी को आप तक पहुचाने में समर्पित कर दिए। स्वयं स्वाध्याय करें और दूसरों को भी स्वाध्याय करने की प्रेरणा दीजिए। ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता उसके संस्कार अगले जन्म में अवश्य जाते हैं।