against corruption

Editorial : भ्रष्टाचार के खिलाफ विपक्ष की एकता पर ही सवाल

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The question is only on the unity of the opposition against corruption.

The question is only on the unity of the opposition against corruption. आम चुनाव नजदीक हैं और विपक्ष को एकजुट होने के लिए कोई मुद्दा चाहिए? देश में विपक्ष को एकजुट होने के लिए इस समय मुद्दों की कमी नहीं है, देश के अंदर और देश के बाहर भी तमाम विपक्षी-विरोधी इसके लिए सक्रिय हैं कि कैसे भारत में इस समय केंद्र में सरकार चला रही भाजपा को अवरोधित किया जाए। खैर, यहां मामला किसी के समर्थन और विरोध का नहीं है। विपक्ष को अपनी योजनाएं बनाने और केंद्र सरकार पर हमलावर होने का अधिकार है, वहीं केंद्र सरकार और उसे संचालित कर रही भाजपा के पास अपने बचाव के तरीके हैं।

दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की शराब घोटाले में गिरफ्तारी के बाद आठ विपक्षी दलों ने जिस प्रकार प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाया है, वह हास्यास्पद है। इस पत्र में कहा गया है कि इस तरह की कार्रवाई से प्रतीत होता है कि हम एक लोकतंत्र से निरंकुशता में परिवर्तित हो गए हैं।

विपक्षी नेताओं के इस पत्र की गहन विवेचना आवश्यक है। सबसे पहले तो यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या एक लोकतंत्र में भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। इन नेताओं ने यह पत्र लिखने से पहले क्या खुद पर चल रहे घोटालों की जांच, आरोप पत्र, गिरफ्तारी-जमानत आदि के संबंध में अच्छी तरह विचार कर लिया था। क्योंकि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, राकांपा प्रमुख शरद पवार, शिवसेना (यूबीटी) प्रमुख उद्धव ठाकरे, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता फारूक अब्दुल्ला, राजद नेता एवं बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव वे नेता हैं, जिनकी पार्टी के नेताओं पर या फिर खुद उन पर भ्रष्टाचार के छींटे ही नहीं पड़े हैं, अपितु भ्रष्टाचार के काले रंग में डूबे हुए हैं।

हैरानी तब भी होती है जब राजद जिसके सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव चारा घोटाला में सजायाफ्ता हैं, की ओर से मनीष सिसोदिया के खिलाफ कार्रवाई का विरोध किया जाता है। क्या यह मान लिया जाए कि जनता की स्मृति बहुत छोटी होती है और वह पुरानी बातों को अपने सिरहाने के तकिये नीचे दबाकर सो जाती है।

संभव है, जमाना पूरी तरह बदल चुका है। विपक्ष का ऐसा पत्र ही सवालों के घेरे में आएगा। क्या यह माना जा सकता है कि जिन आठ दलों के नेताओं ने पत्र लिखा है, वे आम चुनाव में गठबंधन करने वाले हैं। विपक्ष की यह एकता तब और अधूरी लगती है, जब इसमें कांग्रेस का कहीं कोई स्थान नजर नहीं आता। क्या इन आठ दलों के नेताओं ने कांग्रेस से संपर्क नहीं साधा कि हम प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर भ्रष्टाचार के खिलाफ की जा रही कार्रवाई का विरोध करने जा रहे हैं, क्या आप हमारे साथ आएंगे। यह तब है, जब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी स्वदेश की धरती से न सही विदेश की धरा से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं।

राहुल गांधी, सोनिया गांधी समेत कई अन्य कांग्रेस नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। यानी कौन है जो खुद को ध्वल ठहराने का दावा करेगा। यहां मामला तो ऐसा है कि आरोप लगने, उनकी जांच होने और जांच में पुख्या सबूत मिलने के बावजूद किसी घोटाले से इनकार किया जाता है, क्योंकि आरोपी देश की राजनीति के सिरमौर हैं। यानी सभी एक नाव में सवार हैं, तब अगर सभी मिलकर प्रधानमंत्री को पत्र लिखते तो क्या यह और ज्यादा प्रभावशाली नहीं हो जाता। चुनाव में साथ आएं या नहीं लेकिन खुद पर लगे आरोपों के खिलाफ तो सभी विपक्षी कम से कम एक मंच पर आ ही सकते थे।

 इस पत्र में यह भी कहा गया है कि विपक्ष के वे नेता जोकि भाजपा या उसकी सरकार के अंग बन गए और कालांतर में जिन पर केस चल रहे थे, की जांच आज ठंडे बस्ते में डाल दी गई है, लेकिन विपक्ष के दूसरे नेताओं पर कार्रवाई हो रही है। इस प्रकार के आरोपों का जवाब भाजपा को देना चाहिए, आखिर ऐसा क्यों? हालांकि विपक्षी नेता अगर निर्दोष हैं और उन्हें न्यायपालिका पर भरोसा है तो फिर वे क्यों परेशान हो रहे हैं।

उन्हें आरोपों का सामना करना चाहिए। लेकिन जिस प्रकार के हालात में भ्रष्टाचार के ये मामले सामने आए हैं, उसके बाद यह मानना मुश्किल है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ होगा। सांच को आंच क्या की तर्ज पर विपक्ष को अपने खिलाफ होने वाली जांच का सामना करना चाहिए। भ्रष्टाचार कभी तेरा या मेरा नहीं हो सकता। इसे रोक पाना भी मुश्किल है। लेकिन उस पर अंकुश के लिए लगातार काम करना अपने आप में अहम है। देश की जनता ने अब गुमराह होना छोड़ दिया है, वह बेहतर समझती है कि कौन कितने पानी में है। वही सबसे बड़ी न्यायकर्ता भी है। 

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