It is not a fundamental right to block roads, it is right to remove sarpanches

Editorial : रोड जाम करना नहीं मौलिक अधिकार, सरपंचों को हटाना सही

editoriyal1

It is not a fundamental right to block roads, it is right to remove sarpanches

It is not a fundamental right to block roads, it is right to remove sarpanches : लोकतंत्र में शांतिपूर्वक धरना-प्रदर्शन और आंदोलन जायज हक है, लेकिन दिक्कत तब आती है, जब कोई अपने हक के लिए दूसरों के हक पर हमलावर होता है। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ हरियाणा और दिल्ली के बॉर्डर पर साल भर से ज्यादा क्या चलता रहा, यह पूरे देश और दुनिया ने देखा है। हजारों करोड़ रुपये का कारोबार प्रभावित हुआ है, रोजाना आने-जाने वाले यात्रियों को भारी परेशानी उठानी पड़ी। अब अपनी जायज, नाजायज मांगों को मनवाने के लिए जैसे रास्ता रोक कर बैठ जाना एक मौलिक अधिकार हो गया है। हालांकि पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का बेहद सम्मान के साथ धन्यवाद की उसने रास्ता रोक कर बैठने वाले आंदोलनकारियों पर अब डंडा चलाना आवश्यक कर दिया है। पंचकूला में हरियाणा-चंडीगढ़ के जिस बॉर्डर पर ई-टेंडरिंग के खिलाफ सरपंच तंबू लगाकर बैठे थे, जिस वजह से यहां रहने वाले लोगों का जीवन प्रभावित हो रहा था, उन्हें हटवा दिया। एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए माननीय अदालत ने समय निर्धारित किया और पुलिस-प्रशासन से अपेक्षा की कि उस समय के दौरान आंदोलनकारियों को हटा दिया जाए और पुलिस ने समय रहते यह कार्रवाई अंजाम दे दी।

ई-टेंडरिंग पंचायत प्रणाली में सुधार की तरफ मील का पत्थर साबित हो सकती है, सरकार बार-बार इस बात को सरपंचों और प्रदेश की जनता को समझाने में लगी है। लेकिन आंदोलनकारी सरपंच इसे स्वीकार ही नहीं कर पा रहे। क्या माना जा सकता है कि वे वास्तव में ई-टेंडरिंग के खिलाफ हैं या फिर प्रदेश की गठबंधन सरकार के। कहीं ऐसा तो नहीं है कि किसी राजनीतिक प्रभाव में सरपंचों ने विरोध का यह बिगुल बजा रखा हो। यह कितना हैरान करने वाला है कि सरपंच पद की शपथ लेने के तुरंत बाद ही ई-टेंडरिंग और दूसरी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया गया था। यानी ग्रामीणों ने सरपंचों को जिस कार्य के लिए निर्वाचित किया, वे वह अंजाम देने के बजाय सरकार के ही खिलाफ झंडे उठाकर खड़े हो गए। उनसे सरकार दो दौर की बात कर चुकी है, अब मुख्यमंत्री की ओर से 9 मार्च के बाद बातचीत का आश्वासन दिया गया है। हालांकि वापस हरियाणा लौट जाने के बजाय सरपंच पंचकूला में ही धरना लगा कर बैठ गए और उस रास्ते को जाम कर दिया जोकि पंचकूला, मनीमाजरा और चंडीगढ़ के लोगों की लाइफ लाइन है। आजकल बच्चों की परीक्षाओं का भी समय है, वैकल्पिक रास्ते हो सकते हैं, लेकिन क्या आंदोलनकारियों का यह जन्मसिद्ध अधिकार हो जाता है कि वे अपने हितों के लिए दूसरों के रास्ते में अड़चन बनें। ऐसे में हाईकोर्ट का यह निर्णय बेहद उचित और समय रहते उठाया गया कदम है। इससे पहले सरपंचों ने खुद ही एकतरफ का रास्ता साफ कर दिया था, लेकिन यह नाकाफी था। दरअसल, शहरों की तेज भागती दौड़ती जिंदगी में एक सडक़ पर अगर साइकिल रिक्शा भी गलत ढंग से खड़ी कर दी जाए तो जाम लग जाता है। नौकरी पेशा और काम-रोजगार के लिए निकले लोग, शिक्षण संस्थानों में पढ़ रहे बच्चे, युवा यानी कौन ऐसा है जोकि अपने समय को यूं ही बर्बाद करना चाहेगा।  

अगर सख्त फैसले नहीं लिए जाएंगे तो हालात कभी नहीं सुधरेंगे और समय कभी इसकी मोहलत नहीं देगा कि वह ठहर जाए। हरियाणा वह पहला राज्य है, जिसने अपने यहां पढ़ी-लिखी पंचायतों को अपनाया है, इसके लिए मनोहर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी है। हालांकि अब उन्हीं पंचायतों में जब पैसे के खर्च को सुनियोजित करने की तैयारी है तो इसका भी विरोध हो रहा है। सरकार का यह स्टैंड सही है कि ई-टेंडरिंग की नीति वापस नहीं होगी। हमें यह समझना चाहिए कि हर कार्य जनता के भले के लिए होता है, बावजूद इसके अनेक फैसले बहु जनता को रास नहीं आते, लेकिन फिर भी उन्हें लागू करना पड़ता है, क्योंकि उस समय वे स्वीकार नहीं होते, लेकिन समय के साथ उनके फायदे सामने आने लगते हैं। ई-टेंडरिंग मामले को लेकर हरियाणा का विपक्ष भी लगातार सरकार पर हमलावर है। विपक्ष मौजूदा सरकार की पीपीपी, स्वामित्व योजना आदि पर भी सवाल उठा रहा है, हालांकि प्रदेश की जनता इन्हें स्वीकार कर चुकी है। वास्तव में विरोध के लिए विरोध उचित नहीं है, ई-टेंडरिंग जैसी नीति किसी की ईमानदारी पर चोट करने के लिए नहीं है। सरपंचों पर गांवों के विकास की जिम्मेदारी है, वे सरकार का विरोध करके यह काम नहीं कर सकते।  जो जायज है, वह स्वीकार होना चाहिए लेकिन गैरजरूरी का विरोध आवश्यक है। लेकिन सवाल यही है कि लोकतंत्र में यही समझाना मुश्किल काम होता है कि क्या सही है और क्या गलत। लोकतंत्र में जायज भी गलत करार दे दिया जाता है। 

 

ये भी पढ़ें ...

चुनाव आयोग पर सर्वोच्च फैसला सही, क्या अब बंद होंगे आरोप

ये भी पढ़ें ...

Editorial : क्या कानून का पालन कराना लोकतंत्र पर संकट है?