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Editorial: किसान आंदोलन का अब निर्णायक समाधान होना जरूरी

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किसान आंदोलन के दौरान पंजाब एवं हरियाणा की सीमा पर प्रतिदिन ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जोकि इस मामले को और ज्यादा भडक़ा रही हैं। बॉर्डर पर पंजाब के एक 21 वर्षीय युवा की प्लास्टिक की गोली लगने से मौत जहां बेहद दुखद है, वहीं अपने फर्ज को अंजाम दे रहे 12 पुलिस कर्मियों के घायल होने की खबर भी चिंताजनक है।

इस पूरे प्रकरण में केंद्र एवं दो राज्यों की सरकारों के बीच जैसी रस्साकसी चल रही है, उससे न केवल माहौल दिन प्रति दिन तनावपूर्ण बन रहा है, अपितु लाखों करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान हरतरफ उठाना पड़ रहा है, वहीं जनजीवन पूरी तरह से अस्तव्यस्त होकर रह गया है। अब जब केंद्र एवं किसान आंदोलनकारी पांचवें दौर की बातचीत पर सहमत नजर आ रहे हैं, तब क्यों नहीं इस मामले का समाधान करने के लिए किसान संगठन प्रतिबद्ध हो रहे।

हालांकि प्रश्न यह है कि केंद्र सरकार ने साल 2000 में किसान आंदोलन के बाद से इन मांगों को पूरा करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए थे, तब इसकी पूरी आशंका थी ही कि किसान एक न एक दिन अपनी मांगों को लेकर फिर सक्रिय होंगे। बावजूद इसके यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि पंजाब के किसानों की ओर से हिंसक प्रदर्शन और आंदोलन की वजह से सडक़ों पर इतनी रूकावटें लगानी पड़ रही हैं, अगर किसान आंदोलनकारी शांति एवं व्यवस्था से केवल प्रदर्शन और रैली करने जाना चाहें तो उन्हें नहीं रोका जाएगा।  

किसान संगठनों की ओर से कहा जा रहा है कि उनका हरियाणा सरकार से कोई विवाद नहीं है, वे केवल केंद्र सरकार से अपनी मांगें पूरी करवाने के लिए दिल्ली जाना चाहते हैं। लेकिन उनके इस दावे  की सच्चाई तब सामने आ जाती है, जब पूरी तरह से बख्तरबंद ट्रैक्टर-ट्रालियां सीमा पर तैनात मिलती हैं। यह ऐसी तैयारी है, जिसमें छह महीने लग जाएं या साल, वे अपनी मांगों को पूरा करवा कर ही मानेंगे। इसके लिए हथियार बनेगा जनसामान्य को रोकने और उसकी दिनचर्या को बाधित करना।

यह भी सच है कि किसान आंदोलन के दौरान प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली में लाल किले पर किस तरह का उत्पात मचाया था। क्या इसके बावजूद केंद्र सरकार देश की राजधानी में इस प्रकार के उत्पात की इजाजत दे सकती है। आखिर किसानों की मांगों और उनके आंदोलन से किसे परहेज हो सकता है, लेकिन मामला तब बिगड़ता है, जब उत्पात पूर्ण तरीके से हरियाणा को पार करते हुए किसान दिल्ली जाना चाहते हैं। राजधानी दिल्ली में कर्मचारी संगठन भी रैली करते हैं, लेकिन उन्हें कभी भी ऐसे उत्पात की इजाजत नहीं दी जाती, तब किसान संगठन आखिर अपनी एकता के बूते ऐसे उपद्रव को अंजाम देने की सोच भी कैसे सकते हैं।

वास्तव में यह मामला राजनीति से प्रेरित ज्यादा नजर आ रहा है। अनेक बार प्रश्न उठता है कि यही समय ऐसी मांगों के लिए क्यों चुना गया है। इसकी वजह केंद्र पर दबाव बनाना है, किसान संगठन भी अभी तक चुपचाप क्यों थे। उन्होंने इस दौरान न तो किसी मंत्री को ज्ञापन दिया और न ही किसी से मुलाकात से। उन्होंने इससे पहले न बैठकों का दौर चलाया, वे तो ट्रैक्टर-ट्रालियां लेकर हरियाणा की तरफ बढ़ चले। जब उन्होंने रोका गया तो संग्राम छिड़ गया। अगर किसान संगठन इतना कुछ होने से पहले ही केंद्र सरकार से बातचीत का दौर शुरू कर देते तो क्या इसकी गुंजाइश नहीं थी कि इतना विवाद न बढ़ता। ऐसे में उन निर्दोष लोगों जोकि चाहे सामान्य नागरिक हैं या फिर सुरक्षा बल, उनका जीवन सुरक्षित रहता। पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने इस मामले में तल्ख टिप्पणी की है, जोकि उचित है।

यह माना जाना चाहिए कि इस मामले में राज्य सरकारों ने भी ढील बरती है और समय रहते किसानों को रोकने और उन्हें समझाने की कोशिश नहीं की। होना तो यह चाहिए था कि उन सभी पक्षों पर काम कर लिया जाता, जोकि आंदोलन से पहले जरूरी थे। इनमें राज्य सरकार से चर्चा के अलावा केंद्र सरकार से भी बातचीत होनी चाहिए थी। वास्तव में यह मामला जिद का नहीं है। केंद्र एवं राज्य सरकारों और किसान आंदोलनकारियों को समझना चाहिए कि इस प्रकरण में जनता बुरी तरह से पिस रही है। सडक़ें बंद रहने से दिन प्रतिदिन भारी परेशानी जनता को झेलनी पड़ रही है। अब पांचवें दौर की बातचीत से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि कोई समाधान दोनों पक्ष स्वीकार करेंगे। किसान संगठनों को भी यह समझना चाहिए कि मौजूदा हालात में उनकी शत प्रतिशत मांग पूरी होना मुनासिब नहीं है। यह आवश्यक है कि वे भी सुलह का रवैया रखकर आगे बढ़ें।  

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