श्री मुनि सुव्रतनाथ दिगम्बर जैन त्रिकाल चौबीसी मन्दिर, आर के पुरम, कोटा (राजस्थान) में श्रमण श्री विभंज नसागर जी मुनिराज ने मेरी भावना के ऊपर अपना मंगल प्रवचन देते हुए कहा के भक्त भगवान से प्रार्थना करता है और अपने विचारों से अपना परिचय देता है ।जब हम करुणा दया से भीग जाते है ,हृदय करुणा से भर जाता है तो विश्व कल्याण की भवनाएं उत्पन्न होती है, यह धर्म का पहला लक्षण है। आचार्य भगवन कहते है पर पीड़ा का दु:ख धर्मात्मा को ही महसूस होता है।
महात्मा बुद्ध जंगल में बैठे साधना कर रहे थे उसी समय एकांश वाण से विदा हुआ उनके पास गिरता है तो बुद्ध उसको अपनी गोद में बैठा लेते है और उसका उपचार करते है । धर्मात्मा दूसरे की पीड़ा को अपना मानता है ।उसी प्रकार जब राम को वनबास हुआ और सीता का हरण हो गया तब राम सीता की खोज में निकले तो रास्ते में गिद्ध पक्षी मिला जो बड़ा घायल था। राम ने सबसे पहले जड़ी बूटियों से उसका उपचार किया उसके बाद बो आगे बढे। कहने का मतलब हृदय जिसका जितना कोमल होता है तो दूसरे की वेदना को देखकर घबरा जाता है ।जो दयालु प्रकृति का होता है, कोमल हृदयी होता है वह क्षमा मागता है। कहीं उसके द्वारा किसी जीव का हृदय न दु:ख गया हो ,चोट न लग गई हो । चोट लगने पर दुनिया माफ़ी मांग लेती है परन्तु दयालु सोचता है कि किसी को तकलीफ ही न हो।
श्री मुनि सुव्रतनाथ दिगम्बर जैन त्रिकाल चौबीसी मन्दिर, आर के पुरम, कोटा (राजस्थान) में श्रमण श्री विभंज नसागर जी मुनिराज ने मेरी भावना के ऊपर अपना मंगल प्रवचन देते हुए कहा के भक्त भगवान से प्रार्थना करता है और अपने विचारों से अपना परिचय देता है ।जब हम करुणा दया से भीग जाते है ,हृदय करुणा से भर जाता है तो विश्व कल्याण की भवनाएं उत्पन्न होती है, यह धर्म का पहला लक्षण है। आचार्य भगवन कहते है पर पीड़ा का दु:ख धर्मात्मा को ही महसूस होता है। महात्मा बुद्ध जंगल में बैठे साधना कर रहे थे उसी समय एकांश वाण से विदा हुआ उनके पास गिरता है तो बुद्ध उसको अपनी गोद में बैठा लेते है और उसका उपचार करते है । धर्मात्मा दूसरे की पीड़ा को अपना मानता है ।उसी प्रकार जब राम को वनबास हुआ और सीता का हरण हो गया तब राम सीता की खोज में निकले तो रास्ते में गिद्ध पक्षी मिला जो बड़ा घायल था। राम ने सबसे पहले जड़ी बूटियों से उसका उपचार किया उसके बाद बो आगे बढे। कहने का मतलब हृदय जिसका जितना कोमल होता है तो दूसरे की वेदना को देखकर घबरा जाता है ।जो दयालु प्रकृति का होता है, कोमल हृदयी होता है वह क्षमा मागता है। कहीं उसके द्वारा किसी जीव का हृदय न दु:ख गया हो ,चोट न लग गई हो । चोट लगने पर दुनिया माफ़ी मांग लेती है परन्तु दयालु सोचता है कि किसी को तकलीफ ही न हो।
मुनिश्री ने बताया मेरी भावना की अगली चार पंक्तियां हमे बताती है- ‘ईती, भीति व्यापे नहीं जग में, वृष्टि समय पर हुआ करे; धर्म निष्ट होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे ‘रोग मरी दुर्भक्ष न फैले, प्रजा शांति से जिया करे; परम अहिंसा धर्म जगत में, फैले सर्व हित किया करे कवि यहाँ बता रहे है -ईति जहाँ विभिन्न प्रकार से संघार की, प्रलय की भुनिका आ जाती है, प्राणियों का अवशान होने लगता है। ईति से प्राणी घवराते है। तब वह भीति करता है अर्थात घवराता है।
व्यक्ति को सबसे बड़ा भय प्राणों का होता है हर व्यक्ति को भय है इसलिए कहता है सब चला जाये परन्तु प्राण नहीं जाये। शास्त्रों में सात प्रकार की ईति बताई गई है ।1.स्व चक्र अर्थात अपने राजा के द्वारा भय को प्राप्त ,2. पर चक्र अर्थात, दूसरे राजा के द्वारा भय3. अति वृष्टि आवश्यकता से अधिक वर्षा का होना,4. अनावृष्टि कम वर्षा होने या सूखा पड़ जाना , अकाल पड़ जाना, 5. महामारी जो हैजा, चिकनगुनिया, स्वांफ्लू, आदि बीमारियां है जिनसे कई जीव मरण को प्राप्त होते है उसे महामारी कहते है,6. टिड्डा के द्वारा फसल आदि वर्बाद होना,और7. चिडिय़ों के द्वारा फसल आदि को नुकसान होने ,ये सात प्रकार की ईती बताई गई है। इनसे जो भय होता है बो दूर हो और जगत में चारो ओर अहिंसा धर्म फैले।मुनिश्री ने बताया हर व्यक्ति मरने से डरता है चाहे वह छोटा जीव हो या बड़ा जीव हो ,मनुष्य हो ,तिर्यंच हो या देव हो , या नारकी जीव हो कोई भी हो हर जीव मरने से डरता है। और ये जो सात प्रकार की ईतिया है ये व्यक्ति को मरण अवस्था तक पहुँचा देती है। जिस समय प्रलय आने वाला होता है तो जानवर झटपटाने लगते है, कोई अशुभ होने वाला हो तो पुरुषों का बायां अंग फड़कने लगता है।
मुनिश्री ने बताया दिगम्बर साधु न वर्षा के लिए बोल सकते है और न ही वर्षा को रोक सकते है ।क्योंकि यदि वर्षा के लिए बोला तो न जाने कितने हजारो, लाखो, करोड़ों जीव मरण को प्राप्त हो जाएंगे और यदि वर्षा को रोकने के लिए कहा तो न जाने वह पानी किस गांव, किस खेत के लिए आवश्यक था लेकिन वर्षा रुकने के कारण नहीं पहुंच पाया तो वहाँ के जीवों को कष्ट होगा इसलिये भावना भाई जाती है कि -‘वृष्टि समय पर हुआ करे असमय पर वर्षा हो तो उसकी कोई कीमत नहीं, किसान ने बीज बोया और तभी पानी वरष गया तो फसल खराब हो जायेगी। यदि पानी की वर्षा समय के पहले हो जाये तो भी नुकसान है इसलिए न समय के पहले हो और न समय के बाद हो।मुनिश्री ने बताया राजा धर्मनिष्ठ हो। धर्म का अर्थ है कर्तव्य निष्ठ व सदाचारी हो।
राजा यदि मर्यादा के साथ आचरण करता है, सदाचारी है तो दुनिया उसको सम्मान करती है। और राजा का आचरण अच्छा नहीं है तो लोग देश छोड़कर चले जाते है अथवा राजा पर ही संकट खड़े हो जाते है। आचार्य सोम देव सूरी ने ‘यशश तलक चम्पू ग्रन्थ में जीवनधर कुमार का दृष्टांत देते हुए बताया है किस प्रकार काष्टाङ्गार मंत्री ने राजा सतेंद्र को बंधी बना लिया था और पूरा राज्य हड़प लिया था। इसलिए बताया गया राजा न्याय प्रिय, सत्यवादी, निर्लोभी होना चाहिए ।यदि राजा न्याय प्रिय होगा तो राज्य का संचालन कर सकता है। व्यवहार कुशल भी राजा को होना चाहिए। राजा के पास धर्म शक्ति की आवश्यकता है। मुनिश्री ने बताया धर्म निष्ठ का अर्थ यह नहीं की राजा किसी धर्म विशेष का अनुयायी हो धर्म विशेष से जुड़ेगा तो शाशन को नहीं चला पायेगा क्योकि एक राज्य में अनेक धर्मानुयायी होते है ।
राजा धर्म विशेष से जुड़े तो सही न्याय नहीं कर पायेगा। कर्तव्य निष्ठ, सदाचारी ऐसा राजा हर प्रकार से न्याय कर सकता है। वह स्वयं कर्तव्य निष्ठ बन जाये तो लोग मानेंगे। देने की आवश्यकता नहीं रहेगी। मुनिश्री ने बताया ‘रोग ,मरी ,दुर्भिक्ष न फैले अर्थात ऐसे रोग हो जाते है जिनसे व्यक्तियों का मरण हो जाता है। जैसे प्लेग रोग ,हैजा का रोग , चिकनगुनिया रोग, स्वांफ्लू ,केंसर आदि जो रोग है उन रोगों से प्राणियों का मरण हो जाता है ऐसे रोग महामारी ,और अकाल आदि न फैले जिससे प्राणियों को घात हो । सच्चा धर्मात्मा किसी को दु:खी, अश्रुपूरित, या भूखा, प्यासा नहीं देखना चाहता। जो दूसरे के कष्टों को देखकर पिघलता है वही सच्चा धर्मात्मा है। धर्म कहि बाहर से नहीं होता धर्म हमारे अन्दर है। दुसरो को हमारे द्वारा कष्ट न हो ऐसा प्रयाश करना ही धर्मात्मा की पहचान है। धर्म का सम्बन्ध शरीर, वेद या चर्चा नहीं होना चाहिए अपितु धर्म आत्मा में आना चाहिए।
मुनिश्री ने कहा सभी प्रजा की शान्ति की प्रर्थना करनी चाहिए। यदि किसान खुश है तो सारा देश कुश है ऐसा कहा जाता है, फसल नहीं है तो दुर्भिक्ष फेल जाता जा और कहा जा रहा है अहिंसा धर्म जगत में सभी ओर फैले अर्थात एक इन्द्रीय जीव की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। नीम वा तुलसी औषधि रूप में वृक्ष कहलाते है एक इन्द्रीय की भी हिंसा से बचना चाहिए। आज अहिंसा कम हिंसा अधिक हो रही है ,व्यक्ति के पास धन ,दौलत है परन्तु शान्ति, हर्ष नहीं है । उस शान्ति को प्राप्त करना है तो महावीर के अहिंसा धर्म को अपनाना पड़ेगा। इस प्रकार जो दया रूप परिणामं रखता है कि भगवान किसी को रोग ,मरी न हो इससे दुसरो के कष्ट दूर हो या न हो परंतु स्वयं हो को लाभ होगा ही। सामने वाले का तीव्र पाप का उदय हो इस कारण उसका कष्ट दूर हो या न हो पर हमारे शुभ भावनाओ से हमें शुभ आस्रव तो होगा ही ।सारे देश में अहिंसा धर्म फैले धर्म की प्रभावना हो यही हम भावना भाते है।