Honorable people should not be monitored

Editorial: माननीयों की निगरानी न हो, लेकिन उनकी जिम्मेदारी तो तय हो

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Honorable people should not be monitored

सर्वोच्च न्यायालय ने बेहतर प्रशासन के लिए सांसदों, विधायकों की 24 घंटे निगरानी की मांग वाली एक याचिका को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि ऐसा संभव नहीं है, सांसदों-विधायकों की भी निजता होती है। वास्तव में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सांसद और विधायक जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि हैं और उनकी भी निजता है, यानी उनका अपना निजी जीवन है। हालांकि इस याचिका के जरिये देश का ध्यान जिस बात की ओर खींचने की कोशिश की गई है, वह कभी खारिज नहीं की जा सकती। यह बात है, जनता के प्रति उत्तरदायी होने की। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका की सुनवाई से पहले कहा कि मांग की गई है कि सांसदों-विधायकों की 24 घंटे निगरानी होनी चाहिए, यह संभव नहीं है।

याचिका पर सवाल उठाते हुए याचिकाकर्ता को सचेत भी किया गया कि अगर इस पर बहस की गई तो उन पर जुर्माना लगाया जा सकता है। दरअसल, ऐसी मांग करना बेमानी है कि सांसदों-विधायकों के आसपास 24 घंटे कैमरे आदि लगाकर उनकी निगरानी की जाए। यह किसी भी प्रकार से स्वीकार्य नहीं हो सकता कि किसी व्यक्ति जोकि एक निर्वाचित प्रतिनिधि भी है, की प्रतिक्षण इस प्रकार से निगरानी हो कि उसके हर कार्य को रिकॉर्ड किया जाए। ऐसे में इस आधार पर इस याचिका को खारिज किया जाना ही चाहिए था। हालांकि इस याचिका का मंतव्य सिर्फ यही नहीं हो सकता था कि सांसदों-विधायकों की 24 घंटे डिजिटल निगरानी हो। इसका अभिप्राय सांसदों और विधायकों को अपने कार्य के प्रति संजीदा होने की मांग करना था, संभव है, याचिकाकर्ता ने इसे 24 घंटे निगरानी जैसी पेचीदा मांग करके हल्का कर दिया।

निश्चित रूप से एक लोकतांत्रिक देश में जनता ही सर्वोपरि होती है। जनता पांच साल के लिए अपने प्रतिनिधि चुनती है। चुनाव जीतने से पहले एक उम्मीदवार जनता के समक्ष न जाने कितनी दलीलें रखता है, वादे करता है और मिन्नतें करता है। हालांकि चुनाव जीतने के साथ ही जैसे उसका समय शुरू हो जाता है और फिर जनता उसके आवास, कार्यालय के समक्ष पंक्तिबद्ध होकर खड़ी होती है। उसके सामने हाथ जोड़ती है, पैरों को हाथ लगाती है और उसकी एक नजर के लिए घंटों उसका इंतजार करती है। क्या इस सब रवैये को वैधानिक कहा जा सकता है? क्या संविधान में कहीं इसका उल्लेख है कि एक सांसद या विधायक को इस प्रकार जनता से व्यवहार करना होगा। क्या संविधान में इसका उल्लेख है कि जिस जनता के वोट से कोई सांसद या विधायक निर्वाचित होकर संसद या विधानसभा में पहुंचा है और उसकी जिम्मेदारी जनता की सेवा करना है।

24 घंटे उसके कल्याण के लिए विचार करना और योजनाओं को लागू करवाना है, उसकी जरूरतों से आंख बंद करके अपने वातानुकूलित आशियानों में बंद हो जाए। बीते दिनों संसद में इसके आंकड़े जारी किए गए थे कि संसद में किस सांसद ने कितने सवाल पूछे हैं। कितनी हैरानी की बात है कि तमाम ऐसे सांसद हैं, जिन्होंने बीते पांच साल में सदन में एक सवाल तक नहीं पूछा। वे ढंग से सदन की कार्यवाही का हिस्सा तक नहीं बने। आखिर ऐसे में एक याचिका के माध्यम से अगर यह मांग की जाती है कि सांसदों-विधायकों की निगरानी हो तो क्या गलत मांग लिया गया है। आखिर न्यायपालिका भी तो इसी लोकतंत्र की बुनियाद पर खड़ा एक स्तंभ है, फिर उसकी ओर से ऐसी किसी मांग को अनुचित और समय खराब करने वाली बात कहना कहां तक प्रासंगिक है।

याचिकाकर्ता ने सही ही कहा है कि जनप्रतिनिधि जनता के वेतनभोगी सेवक होते हैं, वे जनता की बात कहने के लिए चुने जाते हैं, लेकिन निर्वाचित होने के बाद वे शासक की भांति व्यवहार करते हैं। वास्तव में यह मामला कानूनी है, लेकिन अपने संबंध में ही कानून कौन बनाएगा? जनता सडक़ पर कितनी ही हाय-हाय करती, रहे माननीय उसकी पीड़ा को नहीं समझेंगे, लेकिन अपने संबंध में जब वेतन-भत्ते बढ़ाने की बात आए तो वे तुरंत इस पर अमल कर लेते हैं। इसी प्रकार खुद को नियंत्रित करने जैसा कानून वे कभी नहीं बना सकते। लेकिन क्या देश में इस पर व्यापक बहस की जरूरत नहीं है और माननीय अदालत को इस पर टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं थी कि निर्वाचित प्रतिनिधियों की बेशक निगरानी न हो, लेकिन उन्हें अपने काम के प्रति बेहद जवाबदेह होना ही चाहिए।  अगर जनता सर्वोपरि है तो फिर क्यों न उसे इसका अहसास भी कराया जाए। 

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