The message of the people of Karnataka

Editorial: कर्नाटक की जनता का संदेश, बातें नहीं, स्थानीय मुद्दे हैं अहम

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The message of the people of Karnataka

The message of the people of Karnataka कर्नाटक विधानसभा चुनाव सामान्य चुनाव नहीं माना जाएगा। यह चुनाव राजनीति शास्त्र के अध्येताओं के लिए ऐसा पाठ है, जिसकी बार-बार मीमांसा की जाएगी और जितनी बार भी ऐसा होगा, उसके नये अर्थ सामने आएंगे। इस चुनाव ने देश के सबसे प्राचीन राजनीतिक दल की बुढ़ी हो चुकी नसों में ऐसा उल्लास भर दिया है कि वह दौडऩे लगी है। अभी कुछ समय पहले जब राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा लेकर कन्याकुमारी से कश्मीर की यात्रा पर थे तो उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया गया था। लेकिन राहुल गांधी बहुत बड़ी बातें नहीं कर रहे थे, वे रोटी-रोजगार और अमन-चैन की बात करते हुए मुहब्बत की दुकान खोलने की बात कर रहे थे। क्या कर्नाटक की जनता ने आज कांग्रेस को जो प्रचंड बहुमत दिया है, उसका संदेश यही नहीं है कि देश धर्म-जाति, राम मंदिर और बजरंग बली के बजाय रोटी-रोजगार और अमन-चैन की मांग कर रहा है? देश में बीते वर्षों की तुलना में महंगाई प्रचंड रूप ले चुकी है, कोरोना काल ने रोजगार छीने, काम-धंधे ठप हो गए। पेट्रोल-रसोई गैस के दाम दम निकाल रहे हैं। लेकिन देश का सत्ताधारी नेतृत्व अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों के बराबर आने का जश्न मना रहा है और इन सभी परेशानियों को  भूल जाने को कह रहा है।

 कर्नाटक दक्षिण भारत का वह पहला राज्य है, जिसने भगवाधारी भाजपा के लिए अपने दरवाजे खोले थे। इस विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 64 सीटें जीती हैं, लेकिन 40 सीटें खो भी दी हैं। क्या यह भाजपा के उस तंज जिसमें वह कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देती है, को मुंह नहीं चिढ़ा रहा है। बेशक, पार्टी की इस सोच की अब बहुत आलोचना हो रही है और उसने इससे किनारा कर लिया है। हालांकि एक जोशीली, गर्वीली पार्टी जोकि डबल इंजन का फार्मूला लेकर जनता के बीच जाती है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद दर्जनों रैलियां और रोड शो करके राज्य की जनता से भाजपा को वोट देने का आह्वान करते हैं, अपनी पार्टी को जीत नहीं दिला सके। इसके लिए कौन जिम्मेदार है, यह पार्टी को समझना होगा।

भाजपा की यह हार उसके न केवल दक्षिण विजय को बढ़ते कदमों का ठहराव है, अपितु अगले वर्ष लोकसभा एवं कई अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए भी सबक है। पार्टी को यह भी समझना चाहिए कि अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर आध्यात्मिक क्षुधा को शांत कर सकता है, लेकिन देशभर से उस मंदिर तक जाने के लिए जो पेट्रोल और डीजल वाहनों में भरा जाएगा, उसके लिए जेब बहुत ढीली करनी पड़ेगी, जिसे करते हुए पसीना आना तय है। इस चुनाव में जनता ने 40 फीसदी भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को प्रमुखता दी है। यानी हिजाब, हलाल, धर्मांतरण, हिंदुत्व और पीएम मोदी का चेहरा ही अब भाजपा की जीत का मंत्र नहीं रहा है। जनता को कुछ ज्यादा चाहिए और यह ज्यादा महज बातों का पुलाव नहीं है, अपितु वे दिन प्रति दिन की जरूरतें हैं, जिनके बगैर जीवन दूभर है।

बेशक, भाजपा सरकारों पर इसका आरोप उचित नहीं होगा कि उन्होंने कुछ नहीं किया है, यह जनता की उकताहट हो सकती है, जब बार-बार एक को ही प्रयोग करते वह थक जाती है। पंजाब में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर आम आदमी पार्टी को जब जनता ने अपना विश्वास दिया तो यह एक नई विचारधारा को अपना कर अपनी समस्याओं के समाधान की कोशिश थी। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में भाजपा को पुन: सत्ता सौंपने की बजाय कांग्रेस को (क्योंकि और कोई विकल्प नहीं था) विश्वास मत प्रदान कर जनता ने नया करने की ठानी थी। यही कर्नाटक में हुआ है, सत्ता विरोधी लहर के साथ भाजपा सरकार की उन सभी खामियों को जनता ने वोट देते हुए याद रखा है, जिनकी वजह से हालात बदतर हो गए हैं।

 देश में जनता की मानसिकता लुभावनी बातों को ज्यादा गंभीरता से लेने की हो गई है। अब उसे आतंकवाद पर चोट, विदेश नीति, मंदिर, बजरंग बली, समान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 370 आदि के जरिये नहीं लुभाया जा सकता। पंजाब में आप ने फ्री बिजली, महिलाओं को पेंशन देने जैसे मुद्दे उछाले और जीत प्राप्त कर ली, हिमाचल और कर्नाटक में कांग्रेस ने भी ऐसे ही सब्जबाग जनता को दिखाए और जीत अपनी झोली में डाल ली।

हालांकि देश का स्थाई और दीर्घकालीन भला करने का दावा करने वाली भाजपा अगर मुफ्त की रेवड़ी बांटने से परहेज कर रही है तो यह गलत तो नहीं है। लेकिन उसे इसका नुकसान पराजय के रूप में उठाना पड़ रहा है। कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस की बातों पर भरोसा किया है,की बातों पर भरोसा किया है, यानी जनता यह देखेगी कि जिस बदलाव के लिए उसने वोट किया, वह हुआ या नहीं। जनता के निर्णय पर सवाल नहीं उठाए जा सकते, वह जर्नादन होती है। उसने बड़ा संदेश दिया है, जिसका गुणन जरूरी है।

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