Moral and Ethical Environment in Society: समाज मे नैतिक और चारित्रिक माहौल से ही हो सकती है शांति :मनीषीश्रीसंतमुनिविनयकुमार जी आलोक

Moral and Ethical Environment in Society: समाज मे नैतिक और चारित्रिक माहौल से ही हो सकती है शांति :मनीषीश्रीसंतमुनिविनयकुमार जी आलोक

Moral and Ethical Environment in Society

Moral and Ethical Environment in Society: समाज मे नैतिक और चारित्रिक माहौल से ही हो सकती है शांति :म

चंडीगढ, 25 सितंबर: Moral and Ethical Environment in Society: आज समाज में आधुनिकता और आजादी के नाम पर मर्यादा का हनन हो रहा है और चारों ओर कदाचार का बोलबाला है। आश्चर्यजनक बात यह कि सभ्य कहे जाने वाले समाज में कदाचार को प्रश्रय और बढ़ावा मिल रहा है, जबकि पवित्रता और मर्यादा की बात करने वालों को शंका की नजरों से देखा जा रहा है। किसी भी समाज में सुख-शांति बनी रहे, इसके लिए नैतिक और चारित्रिक माहौल का होना आवश्यक है। केवल कड़े कानून बना देने से बात नहीं बनती। अपने चरित्र का सनिर्माण करके और नैतिकता को अपनाकर ही कोई मनुष्य सभ्य-संस्कारी बन सकता है। ये शब्द मनीषीसंतमुनिश्रीविनयकुमार जी आलोक ने अणुव्रत भवन सैक्टर-24 में कार्यशाला को संबोधित करते हुए कहे। 
मनीषीश्रीसंत ने आगे कहा हमारे समाज में दिनोंदिन बढ़ता कदाचार चिंतनीय और सोचनीय है। कदाचार मनुष्य के भ्रष्ट होने की पराकाष्ठा है। कदाचार का मुख्य कारण भौतिकवाद है। आज जिस तरह पैसे की हनक मनुष्य के सिर पर सवार हो गई है उससे मनुष्य यह मान बैठा है कि पैसे से वह किसी को भी खरीद सकता है या उसका शोषण कर सकता है। यह मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है कि जो पैसा उसके जीवन जीने का एक साधन मात्र था उसे उसने अपने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बना दिया है। जिसका परिणाम यह है कि मनुष्य पैसे का उपभोग कम और पैसा उसका उपयोग ज्यादा कर रहा है।
आधुनिक विज्ञान की शिक्षा के साथ बच्चों के मन में अच्छे संस्कार डाले जाएं और उनके चरित्र का निर्माण किया जाए ताकि अपराध, कदाचार, भ्रष्टाचार आदि पर अंकुश लग सके। हम जिस नजर से दुनिया को देखते हैं, दुनिया भी हमें वैसी ही नजर आएगी। जब हम दूसरे मनुष्य को अपनी तरह मानकर समानता की नजर से देखते हैं तो हर तरह के अपराधों पर अंकुश लग जाता है, लेकिन जब हम दूसरे को शोषित और उपभोग की वस्तु समझने लगते हैं तो उस व्यक्ति के प्रति हमारा नजरिया पूरी तरह बदल जाता है। इसलिए सबसे पहले हमें अपने मन की आंखों पर नियंत्रण करना पड़ेगा तभी हमारी विचार शक्ति और मन स्थिर हो पाएंगे। जब हमारी आत्मा शुद्ध हो जाती है तो फिर मोह-माया, लोभ और कदाचार से संबंधित विचारों से हम मुक्त हो जाते हैं। बहरहाल यहां विश्व कवि रवींद्रनाथ टैगोर की बात याद आती है, ‘जब भी किसी बच्चे के जन्म की सूचना मिलती है तो मैं आशावाद से भर जाता हूं कि परमात्मा मनुष्य से निराश नहीं हुआ है। वह रोज नई प्रतिमाएं गढ़े जा रहा है’। ऐसे में यही कहना होगा कि परमात्मा निराश हो इससे पहले मनुष्य तू सुधर जा।
मनीषीश्रीसंत ने आगे फरमाया कोई वस्तु या व्यक्ति जब तक पास है, आनंद देती है, परंतु दूर जाने पर कष्ट, यही मोह है। ‘मोह’ शब्द की व्याख्या विविध रूपों, अर्थों और विचारों से की गई है। किसी ने मोह का विवेचन एक निर्मूल ‘मोह-बंध’ मान कर किया, तो कोई ज्ञानवान व्यक्ति इसे मन का अमूर्त विकार ही मान बैठा। तो क्या यह मान लें कि मोह-बंध मात्र एक विकृत मन है जो मनुष्य का संतुलन खो देने में सक्षम है। सदियों से मान्य एक यथार्थ यह भी है कि मनुष्य होश बाद में संभालता है, मोह-माया के बंधन में पहले फंसने लग जाता है। इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि बालक का अपनी माता से मोह-बंध उसके रक्तचाप प्रारंभ होते ही प्रारूप ले लेता है। अब इसे प्रेम कहेंं या मोह पर यह एक अवश्यंभावी सत्य है।

अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह आज से 

चंडीगढ, 25 सितम्बर: अणुक्त आन्दोलन मानवीय मूल्यों के संबद्र्धन का एक जन आन्दोलन है। सात दशक पूर्व महान संत आचार्य तुलसी ने भारत की जनता को असली आजादी अपनाने का संदेश दिया था, वही संदेश आज विश्व मानव का पदर्शन कर रहा है। अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह 26 सितम्बर से 2 अक्तूबर तक सैक्टर 24सी अणुव्रत भवन तुलसीसभागार मे मनीषीसंतमुनिश्रीविनयकुमारजीआलोक के सानिध्य मे मनाया जा रहा हैँ।
अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह का कार्यक्रम इस प्रकार है। 

26 सितम्बर, साम्प्रदायिक सौहाद्र्र दिवस, 27 सितम्बर, जीवन विज्ञान दिवस, 28 सितम्बर, अणुव्रत प्रेरणा दिवस
29 सितम्बर, पर्यावरण शुद्धि दिवस, 30 सितम्बर, नशामुक्ति दिवस, 01 अक्तूबर, अनुशासन दिवस, 02 अक्तूबर, अंहिसा दिवस