Gyanvapi survey

Editorial: ज्ञानवापी के सर्वे को सर्वोच्च न्यायालय की सहमति से होगा न्याय

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Gyanvapi survey will be done with the consent of the Supreme Court: सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ का यह कथन वाराणसी में ज्ञानवापी समेत देश में दूसरे विवादित धर्म स्थलों के संदर्भ में अहम है कि जो एक पक्ष के लिए तुच्छ है, वह दूसरे पक्ष के लिए आस्था का विषय है। वास्तव में अब जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के मस्जिद परिसर में सर्वे के आदेश को सर्वोच्च न्यायालय भी स्वीकृति दे चुका है, तब ऐसी बातों का औचित्य नहीं रह जाता, जिनमें मस्जिद परिसर में सर्वे पर सवाल उठाते हुए एकपक्षीय बातें कही जा रही हैं। मस्जिद पक्ष का तर्क है कि इस सर्वे से अतीत के घाव हरे होंगे। उसका यह भी कहना है कि एएसआई सर्वेक्षण में यह जानना चाहती है कि 500 साल पहले क्या हुआ था। वास्तव में इस विवाद को खत्म करने के लिए एकमात्र रास्ता यही है कि यह पता लगाया जाए कि आखिर उस जगह पर सबसे पहले क्या था?

ज्ञानवापी पर मुस्लिम और हिंदू पक्ष के अपने-अपने दावे हैं, एक पक्ष चाहता है कि उस जगह की खोजबीन हो और यह पता लगाया जाए कि आखिर मूल रूप से वह जगह किसके पास थी और वहां पूजा होती थी या फिर इबादत। हाईकोर्ट के आदेश पर मस्जिद परिसर का एएसआई ने वैज्ञानिक सर्वे किया तो मुस्लिम पक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया और माननीय अदालत ने इस पर अंतरिम रोक लगा दी थी, हालांकि बाद में सर्वे की इजाजत दे दी गई।

सर्वे को रूकवाने की याचिका पर भी सवाल उठे थे कि आखिर एक पक्ष उस सच को उजागर होने से क्यों रोक रहा है, जोकि पूरे देश और दुनिया के सामने आना जरूरी है। क्या यह ज्यादा सही नहीं होगा कि विवाद के बजाय उसका समाधान हो। क्या यह पता लगाया जाना जरूरी नहीं है कि आखिर उस जगह पर सबसे पहले मंदिर बना था या फिर मस्जिद। गौरतलब है कि मस्जिद प्रबंधन समिति की ओर से दलील गई है कि यह सर्वे पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 का उल्लंघन करता है, जोकि 1947 में मौजूद धार्मिक स्थलों की शक्ल में बदलाव पर रोक लगाता है। इसे मुस्लिम पक्ष ने भाईचारे और धर्मनिरपेक्षता पर भी आघात बताया।

वास्तव में वर्ष 1947 में जो कानून बनाया गया था, वह किसी एक पक्ष के तुष्टिकरण की कवायद से ज्यादा कुछ नजर नहीं आता। अगर अतीत में कोई अपराध घटा हो और उसकी जांच की जरूरत अब मौजूदा समय में समझी जा रही है तो यह कैसे कहा जा सकता है कि यह मामला तो अतीत हो चुका है और अब उस पर चर्चा या फिर उसके संबंध में और जानकारी नहीं जुटाई जा सकती। मुस्लिम पक्ष की ओर से यह भी कहा गया कि यह संपत्ति 1500 ईसवी से एक मस्जिद के रूप में है। अब इतनी जल्दी क्या है? निश्चित रूप से अदालत के समक्ष अगर इसकी गुहार लगाई जाएगी तो वह इस पर निर्णय जरूर देगी।

मुस्लिम पक्ष ने सर्वे के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया था। क्या इस दलील में कोई तर्क हो सकता है कि इस जगह को इसी स्थिति में 1500 साल हो चुके हैं और अब इसकी जरूरत नहीं है कि यह पता लगाया जाए कि वहां की वास्तविक स्थिति क्या है। यह तब है, जब मस्जिद परिसर में सील वजूस्थल को छोडक़र पूरे परिसर का सर्वे कराने की बात कही गई थी। ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर जारी विवाद बाबरी मस्जिद की तर्ज पर एक गंभीर मामला बन चुका है। हिंदू पक्ष के दावे की सच्चाई अब सामने आने लगी है, यह भी कितना अचंभित करने वाला तथ्य है कि शिवलिंग को फव्वारा बना दिया गया और नंदी जोकि हर शिव मंदिर में शिवलिंग की ओर से मुख करके बैठे होते हैं, की भी अनदेखी की जा रही है। हिंदू पक्ष के मुताबिक उसे यकीन है कि पूरा परिसर मंदिर का ही है। सर्वे का परिणाम उनके अनुकूल होगा।  

मालूम हो, ऐसे भी तथ्य हैं कि इससे पहले हुए सर्वे में 2.5 फीट ऊंची गोलाकार शिवलिंग जैसी आकृति के ऊपर अलग से सफेद पत्थर लगा मिला। उस पर कटा हुआ निशान था। ज्ञानवापी में कथित फव्वारे में पाइप के लिए जगह ही नहीं थी, जबकि ज्ञानवापी में स्वास्तिक, त्रिशूल, डमरू और कमल जैसे चिह्न मिले। मुस्लिम पक्ष कुंड के बीच मिली जिस काले रंग की पत्थरनुमा आकृति को फव्वारा बता रहा था, उसमें कोई छेद नहीं मिला है। वास्तव में ज्ञानवापी का सच उजागर होना जरूरी है, यह हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक सौहार्द का भी विषय है।

एएसआई से जुड़े अधिकारियों का स्पष्ट मत है कि हिंदू और मुस्लिम धर्म की इमारतों में अंतर होता है, प्रत्येक धर्म की इमारत का अपना चरित्र होता है, तब एक कथित मस्जिद के अंदर हिंदू धर्म के प्रतीक चिन्हों का मिलना चकित करता है। वास्तव में यह अच्छी बात है कि अब ज्ञानवापी परिसर में व्यापक सर्वे को अंजाम दिया जा रहा है। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचना ही बड़ी बात है। सर्वे ही वह रास्ता है, जिसके माध्यम से इस विवाद को खत्म किया जा सकता है। किसी ठोस निर्णय पर पहुंच कर ही संशय की इन दीवारों को ढहाया जा सकेगा। 

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