Change the thinking of the dynasty from the son itself

Editorial: बेटे से ही वंश की सोच बदले, पर बेटियां भी समझें जिम्मेदारी

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Change the thinking of the dynasty from the son itself

Change the thinking of the dynasty from the son itself सर्वोच्च न्यायालय की यह राय सही है कि देश में लैंगिक समानता होनी चाहिए और यह सोच न बने कि बेटा वंश चलाएगा और सहारा बनेगा। बेशक, माननीय शीर्ष अदालत ने यह दिशा निर्देशन देशभर की अदालतों के लिए किया है, लेकिन समाज में इसी सोच को आगे बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। भारतीय समाज में यह सोच हमेशा से प्रबल है कि बेटा ही वंश को आगे बढ़ाता है और वही माता-पिता का अंतिम सहारा होता है। हालांकि सच्चाई इसके उलट है, अनेक ऐसे मामले भी हैं, जब बेटियां, बेटों से कहीं ज्यादा प्रभावी तरीके से अपने माता-पिता का सहारा बनती हैं और उन्हें सुखमय बुजुर्ग अवस्था व्यतीत करने में योगदान देती हैं।

अगर भारतीय समाज के आदि स्वरूप की चर्चा करें तो उस समय महिलाएं ही परिवार की मुख्य मार्गदर्शक रही हैं, उन्होंने अपनी इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है, लेकिन समय के साथ उनकी इस भूमिका को संक्षिप्त कर दिया गया और फिर धीमे-धीमे यह रवायत बना दी गई कि बेटे ही परिवार और वंश को आगे बढ़ाएंगे। हालांकि सामाजिक तौर-तरीकों के अनुसार बेटा ही एक पिता की वंशावली को आगे बढ़ाता है, दादा, फिर बेटा, फिर उसके बेटे और आगे यही पीढिय़ां चलती जाती हैं।

दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय ने 21 मार्च को एक सात साल के बच्चे के अपहरण और हत्या मामले में दोषी को मिली फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि दोषी को कम से कम 20 साल की सजा काटनी होगी। यह मामला तमिलनाडु का है, यहां एक परिवार में चार बच्चों (तीन बेटियों और एक बेटा) में से इकलौते बेटे का अपहरण कर उसकी हत्या कर दी गई। इसके बाद अदालत ने इसे गंभीर अपराध मानते हुए दोषी को मौत की सजा सुनाई थी। इसमें हाईकोर्ट ने माना था कि इकलौते बेटे का अपहरण करने के पीछे मकसद माता-पिता के मन में अधिकतम भय और पीड़ा पैदा करना था। इकलौते बेटे को खोना माता-पिता के लिए अत्यधिक पीड़ादायक है, क्योंकि वह उनके परिवार के वंश को आगे बढ़ाता और उम्मीद की जाती है कि वह बुढ़ापे में उनकी देखभाल करता। यह सभी बातें पीड़ित पक्ष के लिए अथाह पीड़ादायक हैं।

जाहिर है, तमिलनाडु हाईकोर्ट में तमाम पक्षों के आधार और अपराध को वंश एवं इकलौते बेटे की नजर से देखते हुए अपराधी को मौत की सजा सुनाई गई थी। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने इसे मौत की सजा से घटा कर इसे आजीवन कारावास में बदल दिया और बेटे के द्वारा ही वंश चलाने की रवायत पर टिप्पणी की।

 माननीय अदालत का यह निर्णय अपनी जगह सही हो सकता है। हालांकि हाईकोर्ट की ओर से इकलौते बेटे की हत्या होने और उसके बाद के तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अपराधी को मौत की सजा सुनाने का फैसला अपनी जगह है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की ओर से इकलौता बेटा होने और उसके द्वारा माता-पिता का वंश आगे बढ़ाने की दलील को खारिज कर महज हत्या की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए फैसला सुनाना अपनी जगह है। लेकिन यह सच है कि जिस माता-पिता ने अपना इकलौता बेटा खोया है, उनके लिए दोषी को मौत की सजा से कम कुछ भी स्वीकार नहीं होगा। आखिर दोषी के दिमाग में उस समय क्या चल रहा होगा, क्या उसने एक भी पल के लिए उस मासूम पर दया दिखाई होगी, जोकि अपने माता-पिता का इकलौता वारिस था और उन तीन बहनों का इकलौता भाई भी। बेशक समाज में समानता की व्यापक भावना से हम यह कहें कि बेटा-बेटी में अंतर नहीं है और बेटियां भी माता-पिता के प्रति उतनी ही जिम्मेदार हैं।

हालांकि सच्चाई यह है कि बेटा-बेटी में बहुत बड़ा अंतर है। ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलेंगे, जब बेटी माता-पिता की सार संभाल को अंजाम दे। भारतीय संस्कृति में माता-पिता का बेटी पर आश्रित होना भी अभिशाप समझा जाता है। उत्तर भारत में तो ऐसी रवायत रही है कि बेटी के घर का पानी पीने तक से माता-पिता खुद को बचाते थे। ऐसा इस धारणा से होता था कि बेटी को दिया जाए, उससे लिया न जाए। चाहे फिर वह उसके घर का पानी ही क्यों न हो।

दरअसल, इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का न्यायिक प्रणाली के अनुसार यह कथन अत्यंत महत्वपूर्ण है कि अदालत के लिए इसकी अहमियत नहीं होनी चाहिए जिसकी हत्या हुई, वह एक लडक़ा था या लडक़ी। अदालत के लिए दोनों समान होने चाहिए। दोषी को सजा उसके अपराध की गंभीरता के अनुसार दी जानी चाहिए। समाज में बेटा-बेटी को समान रूप से आगे बढ़ाने में भी माननीय शीर्ष अदालत की यह टिप्पणी नजीर बनेगी। जहां तक हो सके पुरुषवादी इस सोच को बदले जाने की आवश्यकता है कि बेटा ही वंश का वाहक है, हालांकि बेटियों को भी इस जिम्मेदारी को समझना होगा, क्योंकि हक के साथ जिम्मेदारी स्वत: आती है।

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