Sacrifice of soldiers in Dantewada is painful

Editorial: दंतेवाड़ा में जवानों का बलिदान दुखदाई, नक्सली छोड़ें हिंसा की राह

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Sacrifice of soldiers in Dantewada is painful

Sacrifice of soldiers in Dantewada is painful : देश में नक्सलवाद अभी मरा नहीं है। पिछले कुछ समय से नक्सल गतिविधियों की कहीं चर्चा नहीं थी। लग रहा था, जैसे नक्सलवाद अब अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है, लेकिन बुधवार को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों के कायराना हमले ने 10 जवानों का बलिदान ले लिया। यह इलाका नक्सलवाद का गढ़ है और जिस जगह पर इस वारदात को अंजाम दिया गया वह अरनपुर का जंगल है।

नक्सलियों ने डीआरजी जिसे डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड का नाम दिया गया है, को लेकर जा रही गाड़ी को विस्फोटक से उड़ा दिया। निश्चित रूप से यह हमला बेहद सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया है, इसकी भी आशंका है कि नक्सलियों को इसकी भनक लग गई थी कि जवानों का काफिला वहां से गुजरेगा। क्योंकि इससे पहले 80 जवान तीन दिन तक उसी इलाके में नक्सलियों को सर्च करते रहे थे, लेकिन वे नहीं मिले और जब जवान लौटने लगे तो यह हमला हो गया। इससे पहले अप्रैल 2021 में सुकमा जिले में नक्सलियों के साथ सुरक्षाबलों की मुठभेड़ हुई थी, जिसमें 22 जवान शहीद हो गए थे। यानी दो साल के अंतराल के बाद नक्सलियों ने फिर ऐसे हमले को अंजाम देकर यह संकेत दिया है कि नक्सलवाद अभी मरा नहीं है।  

गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने संसद में यह दावा किया था कि देश में नक्सली वारदातों में 77 प्रतिशत की कमी आई है। यह भी कहा गया था कि नक्सली गतिविधियां सिमटकर विभिन्न राज्यों के 70 जिलों तक सीमित रह गई हैं। साल 2021 में केंद्र सरकार ने कहा था कि छत्तीसगढ़ के 8 जिलों में ही नक्सलवादी हैं, हालांकि   इस भयंकर हमले के बाद यह निश्चित है कि नक्सलवादी लगातार खुद को संगठित करते जा रहे हैं और वे हार मानने की सूरत में नहीं है।

यह भी निश्चित है कि आगामी समय में यह जंग और तेज हो, क्योंकि नक्सलियों के पास आधुनिक हथियार आ रहे हैं और वे विस्फोटक की भारी खेप भी हासिल कर रहे हैं। जबकि सरकार की तमाम एजेंसियां यह सुनिश्चित करने में लगी रहती हैं कि नक्सलवादियों को फंडिंग रूके और उनकी धरपकड़ हो। अगर नक्सलवादियों के हमलों के इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि यह खून से सना हुआ है। साल 2010 में दंतेवाड़ा में नक्सली हमला हुआ था, जिसमें 76 जवानों ने शहादत पाई थी। इसके बाद मई 2013 में झीरम घाटी में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला हुआ था, इसमें कांग्रेस के कई नेताओं सहित 30 से ज्यादा लोग मारे गए थे। इसके पश्चात 24 अप्रैल 2017 को सुकमा में हमला हुआ और इसमें 25 जवान शहीद हो गए। फिर 21 मार्च 2020 को सुकमा में फिर नक्सली हमला हुआ और इसमें 17 जवानों ने सर्वोच्च बलिदान पाया।

सुरक्षा बलों की कार्रवाई पर ध्यान दें तो साल 2011 से लेकर 2021 तक 656 नक्सलियों को मुठभेड़ में मार गिराया गया लेकिन इस दौरान 736 आम लोगों की जान गई। इस खून खराबे के बीच यह प्रश्न अहम है कि क्या नक्सलियों का खात्मा ही इस बुराई का अंत है? अगर नक्सल इतिहास को देखें तो यही एकमात्र उपाय नजर आता है। नक्सलवाद ऐसी सोच है, जोकि खालिस्तान के अनुरूप ही है। कुछ लोग चाहते हैं कि वह इलाका जहां वे रहते हैं, सिर्फ उनके लिए हो। बेशक, इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन राज्यों को इसी आधार पर बांटा गया है और आगे जिले एवं उपमंडल बनाते हुए गांव-देहात तक की इकाई स्थापित की गई हैं।

नक्सलवाद समाज से कटकर अपनी ही दुनिया बसाने की ऐसी नासमझी है, जिसका कभी समर्थन नहीं किया जा सकता। राज्य एवं केंद्र सरकार पर भी इसका आरोप नहीं लगाया जा सकता है कि उसने नक्सलवाद की चपेट में आए लोगों को समाज की मुख्यधारा में लौटाने की चेष्टा नहीं की है। मालूम हो, नक्सल प्रभावित इलाकों के लिए अभी तक 6578 करोड़ रुपये का बजट निर्धारित किया गया है। केंद्र सरकार ने वर्ष 2014-15 और वर्ष 2021-22 में यह राशि आवंटित की है।

आखिर इसके बावजूद नक्सलवाद पर नकेल क्यों नहीं कसी जा सकी है। सरकार नक्सलवाद से बाहर आए लोगों को जहां नौकरियों में प्राथमिकता देती है वहीं इन इलाकों में सुविधाओं को बढ़ाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार ने पुनर्वास-कम-सरेंडर नीति के तहत प्रभावी काम किया है। सरकार का दावा है कि 400 से ज्यादा नक्सली हर साल सरेंडर कर रहे हैं। वास्तव में नक्सलवादियों को यह समझना चाहिए कि इस खून खराबे से कुछ हासिल होने वाला नहीं है, शांति और खुशहाली के लिए उन्हें समाज की मुख्यधारा में लौटना होगा। यह देश सभी का है, उनके हक उनसे कोई नहीं छीन रहा। 

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