Efforts for unity of the opposition are correct

Editorial:विपक्ष की एकता के प्रयास सही, पर जनता का भरोसा जरूरी

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Efforts for unity of the opposition are correct

Efforts for unity of the opposition are correct बगैर विपक्ष के लोकतंत्र जीवंत नहीं है। विपक्ष की भूमिका एक ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक आवश्यक है। देश में बीते दो लोकसभा चुनावों के दौरान विपक्ष जिस प्रकार से छिन्न-भिन्न नजर आता रहा है, उससे देश में विपक्ष की भूमिका पर सवाल उठे हैं और उसकी अहमियत भी कम हुई है। हालांकि विपक्ष अगर एकजुट न भी हो, लेकिन उसके पास कहने को कुछ सार्थक और विश्वसनीय है तो फिर एक राजनीतिक दल भी विपक्ष में काफी है।

जाहिर है, विकास को गति भी तभी मिलती है, जब वैचारिक द्वंद्व सामने आता है, इसके जरिये विकास के नये आयाम जुड़ते हैं और पैदा होने वाली चुनौतियों के चलते लोकतंत्र का स्वरूप और निखरता है। अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए आजकल देशभर में तैयारियां तेज हो गई हैं। विधानसभा चुनावों का इतना प्रचार नहीं है, जितना इनके जरिये लोकसभा चुनाव के लिए अपने अस्त्र-शस्त्रों को धार देने का हो रहा है।

बिहार के मुख्यमंत्री एवं जनता दल यू अध्यक्ष नीतीश कुमार जितनी शिद्दत से आजकल विपक्ष को एकजुट करने के मिशन पर निकले हुए हैं, वह दिलचस्प भी और चकित करने वाली घटना भी है। नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर बिहार में विधानसभा चुनाव लड़ा था, लेकिन दोनों दलों का तलाक हो गया और नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनता दल के साथ हाथ मिलाकर नई सरकार गठित कर ली। अब बिहार में राजद के नीतीश कुमार का सहयोगी दल है, जिसने जदयू से कहीं ज्यादा सीटें जीती थी। खैर, भाजपा के साथ वैचारिक परिपाटी कायम नहीं कर पाने के बाद नीतीश कुमार ने अगर लालू प्रसाद से हाथ मिलाया तो इसमें कोई संशय नहीं था कि वे अब भाजपा विरोधी राजनीति को ही आगे बढ़ाएंगे।

नीतीश कुमार को राजनीतिक पलटी मारने में माहिर राजनीतिक कहा जाता है और यह साबित तथ्य है। हालांकि इस बार वे फिर से भाजपा के साथ जाने की सभी संभावनाओं को खत्म कर चुके हैं, या यह भी कहा जा सकता है कि खुद भाजपा ने उनके वास्ते हमेशा के लिए अपने दरवाजे बंद कर लिए हैं। ऐसे में नीतीश कुमार के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि वे तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद, आम आदमी पार्टी, जनता दल सेक्युलर आदि के साथ अपनी पींगें बढ़ाएं।

 विपक्षी एकता के लिए सिर्फ नीतीश कुमार ही नहीं, खुद ममता बनर्जी और अखिलेश यादव भी सक्रिय हैं। सबसे बढक़र यह कि नीतीश कुमार कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े, वरिष्ठ नेता राहुल गांधी के साथ भी बैठक कर चुके हैं और आम चुनाव में साथ आने की मनुहार कर चुके हैं। इन नेताओं की ओर से भी विपक्ष के एकजुट होने की बात कही जा रही है।

बीते दिनों राहुल गांधी की सदस्यता खत्म होने के दौरान विपक्ष के तमाम दलों ने कांग्रेस के साथ एकजुटता दिखाई थी। दरअसल, एक प्रश्न जो सबके सामने है, वह यही है कि चुनाव से करीब डेढ़ वर्ष पहले विपक्ष के दलों के बीच यह बैठकों का दौर कितना ठोस है। नीतीश कुमार ने कहा है कि वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल नहीं हैं, उनका प्रयास देश की भलाई के लिए काम करना है। इसके बाद वे यह भी आरोप लगाते हैं कि भाजपा ने देश के विकास के लिए कुछ नहीं किया है।

 क्या वास्तव में देश की जनता इस पर विश्वास करेगी कि नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री पद नहीं चाहिए। क्या वास्तव में उनके लगाए आरोप सही हैं कि भाजपा नीत केंद्र सरकार ने देश के लिए कुछ नहीं किया है। क्या वास्तव में ही विपक्ष के दल महज देश की सेवा और इसके विकास के लिए काम करना चाहते हैं। नीतीश कुमार बताएंगे कि अगर उन्हें यही देश सेवा करनी थी तो उन्होंने भाजपा के साथ चुनाव लड़ने के बाद उससे तलाक क्यों लिया और राजद के साथ गलबहियां क्यों डाली, क्या यह सत्ता में बने रहने की लालसा नहीं थी।

इसी प्रकार पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को व्यक्तिगत लड़ाई क्यों बना दिया है। क्या बंगाल सिर्फ एक राजनीतिक दल का है, वही चुनाव लड़ेगा और जीतेगा। राजद का अतीत किस प्रकार का रहा है, उसके सुप्रीमो को सजा हो चुकी है और दूसरे नेताओं पर केस चल रहे हैं। समाजवादी पार्टी ने यूपी में अपराध के ऐसे पहाड़ खड़े होने में सहयोग दिया, जोकि आज राज्य में शांति और व्यवस्था के लिए संकट बने हुए हैं। वास्तव में विपक्ष के दलों को एकता के लिए प्रयास जारी रखने चाहिए, लेकिन उन्हें विडम्बनाओं से भी बचना चाहिए। जनता विपक्ष पर भरोसा कर सकती है लेकिन आखिर उनकी किस बात पर भरोसा करे। विपक्ष का गठजोड़  स्वाभाविक नहीं, मुश्किल घड़ी में साथ आए लोगों का समूह भर नजर आता है, जिस धारणा को बदले जाने की जरूरत है।    

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