child marriage unfair

Editorial:बाल विवाह अनुचित, असम सरकार की कार्रवाई सही  

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child marriage unfair

child marriage unfair देश में बाल विवाह अपराध है, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ में इसकी अनुमति है। मुस्लिम धर्म में एक 15 साल की किशोरी की भी शादी हो सकती है। अब सवाल यह है कि क्या एक 15 साल की किशोरी की शादी होनी चाहिए? असम में आजकल बाल विवाह के खिलाफ राज्य सरकार ने जैसी मुहिम छेड़ी हुई है, वह सराहनीय है लेकिन मामला यह है कि इसकी वजह से कट्टरपंथियों को तकलीफ हो रही है। जब देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात हो रही है, तब बाल विवाह अपराध के तहत राज्य सरकार की यह कार्रवाई सवालों के घेरे में है। अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ muslim personal law के अनुसार इसे देखें तो बाल विवाह गैरकानूनी नहीं है, लेकिन अगर इसे सामान्य कानून के नजरिए से समझा जाए तो यह पूरी तरह से गैरकानूनी है। ऐसे में राज्य सरकार की कार्रवाई पर धर्म के नजरिए से सवाल उठना अनुचित है।

धर्म की आड़ में किसी अनुचित कार्य को प्रोत्साहन नहीं मिलना चाहिए और ऐसे में असम की मुख्यमंत्री हिमंत बस्वा सरमा सरकार की कार्रवाई को समर्थन मिलना चाहिए। आखिर क्यों नहीं देश में बाल विवाह की प्रथा पूरी तरह से समाप्त होनी चाहिए। देश के दूसरे राज्यों में यह प्रथा गैरकानूनी है। अब असम सरकार ने अगर मुखरता से इस पर कार्रवाई शुरू की है तो यह सही दिशा में उठाया गया कदम है।

दरअसल, असम पुलिस का बाल विवाह के खिलाफ महा अभियान जारी है। इसके तहत अब तक 2211 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है, वहीं 3500 लोगों को गिरफ्तार करना बाकी है। असम पुलिस ने 8134 लोगों को आरोपी बनाया है। आल इंडिया यूनाईटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने इस कार्रवाई को मुसलमानों को सताने के लिए उठाया गया कदम बताया है। शरियत में उल्लेख है कि 15 साल के बाद शादी हो सकती है।

असम सरकार ने बाल विवाह के खिलाफ Assam government against child marriage कार्रवाई को दो हिस्सों में बांटा है। पहले में असम पुलिस 14 साल से कम उम्र की लड़कियों से विवाह करने वालों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है। पुलिस उन पर यौन अपराध से बच्चों का पॉक्सो कानून के तहत मामला दर्ज कर रही है। वहीं दूसरे में 14-18 साल की लड़कियों से विवाह करने वाले निशाने पर हैं। इसमें बाल विवाह रोकथाम अधिनियम, 2006 के तहत मामला दर्ज किया गया है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ muslim personal law के तहत प्यूबर्टी यानी युवावस्था प्राप्त करने वाली लडक़ी की शादी की उम्र 15 साल है। हालांकि राष्ट्रीय महिला आयोग ने शरियत में शादी की उम्र को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। इसकी सुनवाई चल रही है। महिला आयोग ने याचिका में सभी धर्मों की महिलाओं के लिए 18 वर्ष की एक समान विवाह योग्य आयु को लागू करने की मांग की थी। मुस्लिम पर्सनल लॉ में शादी की उम्र तय करने को न केवल मनमाना, तर्कहीन और भेदभावपूर्ण बताया है बल्कि पॉक्सो अधिनियम, 2012 के प्रावधानों का भी उल्लंघन करार दिया है, जो बच्चों, खासकर लड़कियों को यौन अपराध से बचाने के लिए लागू किया गया था।

गौरतलब है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अलावा दूसरे धर्मों में विवाह की न्यूनतम आयु प्रचलित दंड कानूनों के अनुरूप है। भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम 1936, विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत, एक पुरुष के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 21 साल और एक महिला के लिए 18 साल है।

इसके बावजूद मुस्लिम समाज में बेटियों की शादी की आयु इतनी कम होना अपने आप में हैरानी की बात है। मुस्लिम समाज में तीन तलाक जैसी बुराई थी, जिसके खिलाफ मोदी सरकार ने कानून बनवाया है, वहीं अब हलाला जैसी अनुचित रवायत भी है, जिसमें एक महिला को भारी प्रताडऩा से गुजरना पड़ता है। इसी तरह से किशोरियों का बाल विवाह भी आज के दौर के अनुसार मानसिक सोच का दिवालियापन दर्शाता है।

मुस्लिम समाज में एक परिवार में अनेक बच्चे होते हैं, एक किशोरी जिसकी शादी 15 साल की उम्र में हुई हो, उसका बाकी का जीवन बच्चों को जन्म देने में ही बीत जाता है। क्या मुस्लिम महिलाओं को अपने जीवन की आजादी नहीं होनी चाहिए, जिसमें वे खुद अपनी शादी की उम्र तय करें और संतान प्राप्ति का समय भी खुद निश्चित करें। आज का समय आगे बढ़ने का है, फिर धार्मिक कायदों में खुद को जकड़ कर मुस्लिम समाज क्यों अपनी विकास की रफ्तार को कुंद करता है। वास्तव में आज का समय नए संदर्भों में विचार कर आगे बढ़ने का है, धर्म कभी अनुचित की अनुमति नहीं देता, संभव है, उसकी व्याख्या गलत समझी गई हो। धर्म में भी अनुसंधान संभव है, और यह प्रत्येक मत, संप्रदाय में होना चाहिए। 

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