Chief Minister conversation with Sarpanches

Editorial : सरपंचों के साथ मुख्यमंत्री की बातचीत, सार्थक नतीजा संभव

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Chief Minister conversation with Sarpanches

Chief Minister conversation with Sarpanches हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल और सरपंचों के बीच वार्ता का दौर सही रास्ते पर नजर आ रहा है तो यह सुखद ही है। ई-टेंडरिंग को लेकर सरकार और सरपंचों के बीच कायम यह गतिरोध दूर होना जरूरी है। इससे पहले दो दौर की सरकार से बातचीत हो चुकी है, लेकिन उसमें कुछ नहीं निकल सका।

हालांकि अब स्वयं मुख्यमंत्री जब इस मामले को लेकर बैठक कर रहे हैं तो अधिकतर मांगों पर सहमति बनने की उम्मीद बंध रही है। बेशक, मुख्यमंत्री के साथ लगातार दूसरे दिन यानी शुक्रवार को बैठक नहीं हो सकी, लेकिन ऐसा मुख्यमंत्री की व्यस्तता के चलते हुआ, यह भी सराहनीय है कि सरपंच एसोसिएशन ने इस बात को समझा है और आशा जताई है कि मामले का जल्द निराकरण हो सकता है।

गौरतलब है कि ई-टेंडरिंग के मुद्दे को लेकर पंचकूला में हरियाणा भर के सरपंचों और पुलिस के बीच टकराव हो चुका है। इसमें अनेक सरपंच घायल हो चुके हैं। यह मामला पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में भी जा चुका है, जब पंचकूला में सरपंचों ने सडक़ को जाम कर दिया था। इसके बाद हाईकोर्ट ने सरपंचों को वहां से हटा दिया। काबिलेगौर यह है कि सरपंचों ने वहीं बैठने की जिद नहीं की, जैसा कि किसान आंदोलन के समय हुआ था।

ऐसी चर्चाएं हैं कि सरकार ई-टेंडरिंग की सीमा में बढ़ोतरी कर सकती है। बेशक इसे आधिकारिक रूप से अभी सही नहीं माना जा सकता, लेकिन सवाल यही है कि सरपंच अगर ईमानदार हैं तो फिर उन्हें ई-टेंडरिंग से डर क्यों लग रहा है, भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए अगर ऐसा जत्न किया जा रहा है तो इसका स्वागत करने के बजाय विरोध क्यों हो रहा है। हरियाणा में नवनिर्वाचित सरपंचों ने अपना पदभार तक ठीक से नहीं संभाला लेकिन वे सरकार की ई-टेंडरिंग पॉलिसी का विरोध करने बैठ गए। ग्राम पंचायतों में 2 लाख रुपये से अधिक के विकास कार्य ई-टेंडरिंग से ही कराने की योजना है। पंचायत चुनाव के परिणाम के बाद से ही प्रदेशभर में धरने पर हैं, और पंचायत विकास मंत्री देवेंद्र बबली के साथ उनकी पहली बैठक बेनतीजा रही।

इस मामले की गूंज विधानसभा के बजट सत्र में सुनाई दे चुकी है, लेकिन अब जब सत्र फिर शुरू होने जा रहा है तो संभव है, विपक्ष इस मामले को और धार देने की कोशिश करेगा। ऐसे में सरकार के समक्ष इस मुद्दे के निपटारे के लिए हर संभव कोशिश करने के अलावा कोई चारा नहीं है। वास्तव में ग्राम पंचायतों में विकास कार्यों का कोई तो हिसाब रखा ही जाना चाहिए। अब अगर इसकी शुरुआत हो रही है तो विरोध क्यों हो रहा है।

बेशक, राइट टू रिकॉल और सरपंचों का काम पंचों को देने संबंधी बयान बेहद सख्त माने जाएंगे, लेकिन क्या सरपंचों को भी यह नहीं समझना चाहिए कि अगर ई टेंडरिंग प्रणाली लागू होती है तो इसमें अनुचित क्या है? सरपंचों की ओर से 19 मांगें सरकार के समक्ष रखी गई हैं, आज के समय में मांगों को मनवाने का जरिया विरोध हो गया है। जो भी चीज अपने मुताबिक न हो, उसका विरोध लोकतांत्रिक हो गया है।

गौरतलब है कि बीते दिनों पंचायत मंत्री के प्रति राजनीतिक रूप से तीखे बयान सामने आए थे। यह सब बेहद विचित्र स्थिति है। हर कोई अपनी बात कहने को स्वतंत्र है, लेकिन यह भी आवश्यक है कि सरकार और संगठन की अपनी-अपनी भूमिका और गरिमा का ख्याल रखा जाए। अगर सब कुछ संगठन को ही करना है तो फिर सरकार के गठन का क्या औचित्य रह जाता है। जिन लोगों को संगठन से सरकार में भेजा गया है, उनकी अपनी पहचान और समझ है, लेकिन उन्हें एक पार्टी कार्यकर्ता के रूप में समझना और इस्तेमाल करना विधानपालिका और कार्यपालिका का अपमान होगा।

हालांकि सरपंचों की ओर से उठाई गई कई मांगें जायज प्रतीत होती हैं। सरपंचों ने संविधान के 73वें संशोधन की 11वीं सूची में शामिल 29 अधिकारों को पूर्ण रूप से लागू करने की मांग की है, वहीं ग्राम पंचायतों में कार्यरत सभी विभागों के कर्मचारियों की एसीआर लिखने का अधिकार सरपंच को देने और विकास कार्यों में कमी पाए जाने पर अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई की जाए ल कि सरपंच के खिलाफ भी एक उचित मांग प्रतीत हो रही है।

हालांकि इस मांग के संदर्भ में यह भी देखा जाना चाहिए कि अक्सर सरपंच बड़े गबन में लिप्त पाए जाते हैं, तब वे यह सब किसकी मिलीभगत से करते हैं। अधिकारियों की मिलीभगत के बगैर यह संभव नहीं होता, ऐसे में किसी आर्थिक कोताही में सरपंच खुद को कैसे पाक-साफ रखवाना चाहते हैं। बेशक, यह सब मांगें अब मुख्यमंत्री के समक्ष हैं और वे बेहतर निर्णयकर्ता हैं। बातचीत से ही किसी मामले का हल निकलता है और यह मामला अब उसी स्टेज पर है। जाहिर है, कुछ न कुछ समाधान अवश्य निकलेगा। 

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