Congress's alternative to Mamata Banerjee

कांग्रेस का विकल्प ममता बनर्जी

Editorial

Congress's alternative to Mamata Banerjee

देश में आज की तारीख में भाजपा के बाद तृणमूल कांग्रेस ऐसी पार्टी है, जिसकी सर्वाधिक चर्चा हो रही है। भाजपा की इसलिए क्योंकि उसकी केंद्र सरकार ने सबसे बड़े विवाद की जड़ तीन कृषि कानूनों को अभूतपूर्व रूप से वापस ले लिया वहीं तृणमूल कांग्रेस की इसलिए क्योंकि वह अब कांग्रेस का विकल्प बनने की राह पर है। यह काफी साहसिक निर्णय है और इसका स्वागत होना चाहिए। हालांकि यहां कांग्रेस को कमजोर करने या उसके होने की दुआ नहीं मांगी जा रही। लोकतंत्र में जितने ज्यादा दल होंगे, वह उतना ही पल्लवित होगा और दृढ़ भी रहेगा। भाजपा का उद्घोष है कि वह कांग्रेस मुक्त देश बनाना चाहती है। अब यह बात इसलिए कही गई है क्योंकि कांग्रेस ने खुद को इतना कमजोर और लाचार कर लिया है कि अब वह वयोवृद्ध नजर आने लगी है और उसकी जगह ऐसे किशोर को जगह लेते देखा जाने लगा है, जिसकी नस-नस में ऊर्जा और आगे बढऩे की चाह भरी हो। एक व्यक्ति तभी अपने पैरों पर खड़ा रह सकता है, जब उसमें इसकी चाह होती है, अगर जिंदा रहने की यह चाह ही खत्म हो जाए तो फिर उसे भगवान भी नहीं बचा सकते। हालांकि कांग्रेस को देखकर यह लगने लगा है कि अब वह उकता गई है। उसकी यह उकताहट तृणमूल कांग्रेस को आगे बढऩे को उकसा रही है।

    मालूम हो तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी का आज के समय दो ही लक्ष्य  नजर आ रहे हैं, एक भाजपा के खिलाफ मजबूत गठबंधन करना और दूसरा कांग्रेस का विकल्प बनना। इसके लिए वे हरसंभव कोशिश कर रही हैं। उन्होंने महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेताओं के साथ मुलाकात कर यह जता दिया है कि उनका संकल्प मजबूत है और वे हर संभावना की तलाश कर रही हैं। हालांकि इस दौरान उन्होंने यूपीए जिसे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन कहा जाता है, के संबंध में सवाल का जवाब देते हुए साफ कर दिया कि अब यह गठबंधन जीवित नहीं है। उन्होंने कहा-'कैसा यूपीए?, कोई यूपीए नहीं है अब।' कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व पर सीधा हमला बोलते हुए वे यहां तक कह गई कि ज्यादातर समय विदेश में बिताते हुए आप राजनीति नहीं कर सकते। जाहिर है, उनका इशारा राहुल गांधी की तरफ था। भाजपा यही बात कहते हुए अक्सर राहुल पर निशाना साधती रही है। बहरहाल, कांग्रेस को लगभग खारिज करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि सभी क्षेत्रीय पार्टियां साथ आ जाएं तो भाजपा को आसानी से हराया जा सकता है। ममता का ताजा बयान उनकी उस आक्रामक नीति का ही हिस्सा है जिसके तहत उनकी पार्टी अब सारे संकोच त्यागकर कांग्रेस के घर सेंध लगाने में जुटी दिख रही है। कुछ दिनों पहले जब कांग्रेस नेता सुष्मिता देव ने तृणमूल जॉइन की थी तो उसे लेकर पार्टी के नेता बचाव की मुद्रा में दिख रहे थे। तृणमूल नेताओं का कहना था कि इसे कांग्रेस के खिलाफ कदम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। लेकिन उसके बाद हाल में कांग्रेस के कई नेता तृणमूल में चले गए और खुद ममता बनर्जी ने बयान दिया कि भाजपा से लडऩे की इच्छा रखने वाले हर नेता का वे स्वागत करेंगी। साफ है कि पार्टी की रणनीति में यह नया बदलाव है। वैसे हर पार्टी को अपने विस्तार की कोशिश करने और उसके लिए अपना रास्ता चुनने का अधिकार है और जहां तक कांग्रेस के खिलाफ दिए गए तृणमूल चीफ के बयान का सवाल है तो उसका जवाब देना कांग्रेस नेताओं का काम है।


    अगर इसे भाजपा को केंद्र की सत्ता से निकालने में विपक्ष की ताकत को एकजुट करने के घोषित मकसद के लिहाज से देखा जाए तो इस रणनीति का दूर तक जाना मुश्किल लगता है। आज की स्थिति में भी कांग्रेस न केवल विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है बल्कि करीब 20 फीसदी वोट भी उसके पास हैं। ममता के संभावित रुख का अंदाजा एनसीपी को पहले से ही था। शायद इसलिए एनसीपी के प्रवक्ता ने ममता-पवार मुलाकात के एक दिन पहले ही कहा कि कांग्रेस को छोडकऱ विपक्ष की किसी पहल के बारे में नहीं सोचा जा सकता। बैठक के बाद भी ममता के मुकाबले पवार का रुख संतुलित था। बावजूद इसके, दोनों नेताओं की इस पहल का मर्म यही है कि पहले गैर कांग्रेस, गैर भाजपा दलों का एक समूह बन जाए, फिर वह समूह कांग्रेस से चर्चा करे। चाहे जितना भी घुमा-फिराकर करें, पर तीसरे मोर्चे की यह काठ की हांडी फिर से चूल्हे पर चढ़ाने की कोशिश मौजूदा हालात में संभव नहीं दिखती।  


    खैर, जो पहले कदम बढ़ाता है वह उसका सार्थक परिणाम भी पाता है। मौजूदा हालात में ममता बनर्जी ऐसे विरोधाभासों के बारे में नहीं सोच रही हैं। वे अर्जुन की तरह मछली की आंख पर निशाना साधना चाहती हैं और उनके लिए मछली की आंख है केंद्र की सत्ता से भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बेदखली। बंगाल चुनाव से पहले तक ममता के तेवर अलग थे, चुनाव के बाद बिल्कुल अलग। पहले ममता जब भी दिल्ली आती थीं तो सोनिया गांधी से जरूर मिलती थीं। लेकिन इस बार संसद के शीतकालीन सत्र से पहले वह जब दिल्ली के दो दिवसीय दौरे पर आईं थीं तो सोनिया गांधी से नहीं मिलीं। ममता बनर्जी के पास नेतृत्व क्षमता है पूरे देश में उनकी स्वीकार्यता भी है। उनकी बातों में अपील होती है और देश उन्हें सुनता है। ऐसे में उनके भाजपा और कांग्रेस के इतर खड़े होने की कोशिशों के परिणाम सामने आ सकते हैं। हालांकि अगले वर्ष होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव काफी कुछ साबित करेंगे। इंतजार करें।