Sikki Art gives a new identity by making river grass useful

सिक्की आर्ट से नदियों की घास को उपयोगी बनाकर दी नई पहचान, सिक्की घास के इस्तेमाल से बनाती हैं देवी देवताओं की तस्वीर, ऐतिहासिक भवन एवं ज्वैलरी

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Sikki Art gives a new identity by making river grass useful, Sikki makes pictures of Gods and Goddes

Sikki Art gives a new identity by making river grass useful: चंडीगढ़। फरीदाबाद में आयोजित हो रहे 37वें सूरजकुंड मेला शिल्पकारों,  कारीगरों और कलाकारों का चहेता मंच बना हुआ है। पर्यटक लगातार इन शिल्पकारों के बनाए उत्पाद खरीद रहे हैं। बिहार राज्य के सीतामढ़ी क्षेत्र से सूरजकुंड मेले में आई ज्योत्सना ने नदियों में उगने वाली सिक्की घास को अपने हुनर से उपयोगी बनाया है। ज्योत्सना ने न केवल उस घास को उपयोगी बनाया, बल्कि आर्थिक तरक्की का आधार भी बना लिया है। घास से बनी देवी देवताओं, ऐतिहासिक स्थलों और ज्वैलरी अब हजारों की कीमत में बिक रही है। इसी सिक्की घास की कला को प्रोत्साहित करने के लिए भारत सरकार ने ज्योत्सना को वर्ष 2014 में राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा है। ज्योत्सना इस कला पर पीएचडी भी कर रही हैं। उन्होंने पिछले 24 वर्षों में इस कला को देश के विभिन्न हिस्सों में पहचान दिलाने के साथ-साथ अमेरिका, इथोपिया, जर्मनी और दुबई तक पहुंचाने का कार्य किया हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि ज्योत्सना 50 से अधिक महिलाओं को अपने साथ जोडक़र उन्हें भी आत्मनिर्भर बना चुकी हैं।

शिल्पकार ज्योत्सना ने बताया कि सिक्की कला राजा जनक के समय से चली आ रही है। पुराणों में वर्णित है कि सिक्की कला का उदय सीतामढ़ी से हुआ। विदेहराज राजा जनक ने अपनी पुत्री वैदेही को विदाई के समय मिथिला की महिलाओं से विभिन्न प्रकार की कलाकृतियां बनवाकर दी थी, जिसमें सिक्की कला की पौती, पेटारी, डिब्बी आदि शामिल थी।

ज्योत्सना बताती हैं कि सिक्की घास बिहार की बाढ़ वाली नदियों के अलावा नेपाल की नदियों में पाई जाती है। यह कुश की तरह की घास होती है जो दिखने में गेहूं के पौधे जैसे लगती है। नदियों के किनारे जमा होने वाले पानी में यह घास उगती है। अक्टूबर-नवंबर महीने में ही इसकी कटाई होती है। उसे सुखाकर और दो परतें निकालकर तीसरी परत को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर गोंद के माध्यम से विभिन्न प्रकार की आकृतियां और ज्वेलरी बनाई जाती है। ज्योत्सना का कहना है कि इस कला को आगे बढ़ाने वाली अपने परिवार की वह पांचवीं पीढ़ी हैं। एक आकृति बनाने में उन्हें डेढ़ से दो महीने का समय लगता है। उनके द्वारा बनाई गई भगवान गणेश, लेटे हुए मुद्रा में भगवान बुद्ध, शंख, पीपल का पत्ता आदि आकृतियां मेले के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन रही है।

 

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