सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला आज: क्या राज्यपालों पर बिलों को मंज़ूरी देने की समयसीमा तय हो सकती है?

Presidential Gubernatorial

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नई दिल्ली: Presidential Gubernatorial: सुप्रीम कोर्ट गुरुवार को संविधान के आर्टिकल 143 के तहत राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए रेफरेंस पर अपना महत्वपूर्ण फैसला सुनाने जा रहा है। इस रेफरेंस का मूल प्रश्न यह है कि जब संविधान में कोई तय समयसीमा नहीं दी गई है, तो क्या राज्यपालों द्वारा राज्य विधानसभाओं में पारित बिलों पर कार्रवाई के लिए कोई टाइमलाइन निर्धारित की जा सकती है?

सुनवाई की पृष्ठभूमि और संविधान पीठ की कार्यवाही

सीजेआई बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने 11 सितंबर को 10 दिनों तक चली लंबी बहसें सुनने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इसमें अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और विपक्ष शासित राज्यों—तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, पंजाब और हिमाचल प्रदेश—की ओर से विस्तृत दलीलें पेश की गई थीं। इन राज्यों ने राष्ट्रपति के इस रेफरेंस का विरोध किया था।

‘इन री: असेंट…’ मामले में नोटिस और केंद्र से सहायता

जुलाई 2025 में जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पी.एस. नरसिम्हा और अतुल एस. चंदुरकर की पीठ ने ‘इन री: असेंट, विदहोल्डिंग ऑर रिज़र्वेशन ऑफ बिल्स…’ शीर्षक वाले मामले में केंद्र और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया था। इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल से भी इस संवैधानिक प्रश्न पर सहायता मांगी थी।

तमिलनाडु बिल विवाद और राष्ट्रपति का रुख

तमिलनाडु के विवादित बिलों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से यह स्पष्ट राय मांगी थी कि आर्टिकल 200 के तहत जब कोई बिल राज्यपाल के समक्ष आता है, तो उनके पास उपलब्ध विकल्पों का इस्तेमाल किस आधार पर और कैसे किया जाना चाहिए।

अप्रैल 2025 का ऐतिहासिक फैसला और तीन महीने की डेडलाइन

अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशीय पीठ ने आर्टिकल 142 के तहत विशेष शक्तियों का प्रयोग करते हुए तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आर.एन. रवि के बीच बिलों को मंजूरी देने में देरी को लेकर चल रहे गतिरोध को सुलझाया था। अदालत ने कहा कि दस बिलों को मंजूरी न देना ‘गैर-कानूनी और मनमाना’ कदम था। साथ ही यह निर्देश दिया गया कि विधानसभा द्वारा दोबारा पारित किए गए बिलों पर राष्ट्रपति और राज्यपाल को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन ने यह भी स्पष्ट किया कि समयसीमा पार होने की स्थिति में राज्य राष्ट्रपति के खिलाफ रिट याचिका दायर कर सकता है।

गवर्नर का विवेक और राष्ट्रपति की भूमिका पर न्यायालय का रुख

सुप्रीम कोर्ट ने अपनी विशेष शक्तियों के तहत इन रोके गए दस बिलों को उसी दिन से मंज़ूर माना, जिस दिन वे दोबारा विधानसभा से पारित होकर राज्यपाल के पास पहुंचे थे। कोर्ट ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि दोबारा पारित बिल को राज्यपाल राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित नहीं रख सकते।

इस निर्णय ने बिलों पर निर्णय लेने के लिए तीन महीने की समयसीमा को मजबूत किया और पहली बार राष्ट्रपति के कार्यों को सीमित तौर पर न्यायिक समीक्षा के दायरे में ला दिया। इसी आधार पर राष्ट्रपति ने आर्टिकल 143 का उपयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांगी। आर्टिकल 143 राष्ट्रपति को सार्वजनिक महत्व और संवैधानिक व्याख्या के प्रश्नों पर सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेने का अधिकार देता है।

राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए मुख्य संवैधानिक प्रश्न

राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से यह जानना चाहा है कि—
• क्या राज्यपाल आर्टिकल 200 के तहत बिल पर निर्णय लेते समय मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य हैं?
• क्या राज्यपाल बिलों पर संवैधानिक विवेक का प्रयोग कर सकते हैं, जबकि आर्टिकल 361 उनके कार्यों पर न्यायिक समीक्षा को सीमित करता है?
• क्या आर्टिकल 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा विवेक के प्रयोग के लिए कोर्ट किसी समयसीमा या प्रक्रिया का निर्धारण कर सकता है?

इन सभी संवैधानिक सवालों पर सुप्रीम कोर्ट की आज आने वाली सलाह भारत में केंद्र-राज्य संबंधों और संवैधानिक जिम्मेदारियों को नए सिरे से परिभाषित कर सकती है।