आचार्यों ने ‘सरलता को ‘धर्म कहा है। जिसका मन टेड़ा है, जिसे छुआछूत का रोग है, जो संशयात्मा है उसे ज्ञान नहीं होता। सरल बनने पर ही परमात्मा का दर्शन होता है। ऋजोर्भाव: आर्जव: सरलता का नाम आर्जव है या यूं कहिए- भोलापन, उन्मुक्त हृदय, मन-वचन-काय की एक रूपता, मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम। जहां यह सरलता विद्यमान है वहां परमात्मा का दर्शन निश्चय ही है। इस मार्ग में डिप्लोमेसी नहीं है।
आज आर्जव का दिन है। अपराजित सूरि भगवती आराधना की विजयोदय टीका में लिखते हैं- आकृष्टान्त द्वयसूत्र वद्वक्रताभाव: आर्जवमित्युच्यते जिस प्रकार डोरी के दो छोर पकड़कर खींचने से वह सरल होती है उसी तरह मन में से कपट दूर करने पर ही वह सरल होता है अर्थात् मन की सरलता आर्जव है।
‘धम्मो चि_इ सुद्धस्यÓ धर्म मानसिक शुद्धि में निवास करता है और मानसिक शुद्धि उसी के होती है जो सरल है। सरलता का अर्थ है कथनी और करनी में समानता, बिलकुल स्फटिक मणि जैसी पारदर्शिता (ट्रान्सपेरिटी)।
मैं वह आईना हूं जो देखूंगा वह दिखाऊंगा।
फरेब देने का मुझे हुनर नहीं आता।।
कवि द्यानतराय कहते हैं- रंचक दगा महादु:खदानी रंचमात्र दगा-मायाचारी भी महादु:खदायी परिणाम को देने वाली हो सकती है। आचार्यश्री मल्लप्रभधारी देव ने नियमसार गाथा एक सौ बारह की टीका में यहां तक कह दिया है- गुप्तपापतोमाया, छुपकर पाप करना मायाचारी है। आप सांसारिक पाप छुपकर ही करते हैं यही तिर्यंचायु के आस्रव का कारण है। विदित है तिर्यंच गति का क्षेत्र कितना विशाल है-
चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष-संठान।
तामें जीव अनादि तैं, भरमत है बिन ज्ञान।
लोक के दुख उससे भी विशाल है। स्वामी कार्तिकेयाचार्य कहते है-
तत्तो णिस्सरिदूणं, कहमवि पंचिंदिओ होदि।।
सो वि मणेण विहीणो ण य अप्पाणं परं पि जाणेदि।
अहमण-सहिदो होदि हु तह वि तिरिक्खो हवे रुद्दो।। सो तिव्व-असुह-लेसो णरये णिवडेई दुक्खदे भीणे।
तत्थ वि दुक्खं भुंजदि सारीरं माणसं पउरं।।
* एकेन्द्रिय से दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय होकर पंचेन्द्रित होना दुर्लभ है। यदि विकलेन्द्रिय से पुन: एकेन्द्रिय पर्याय में चला गया तो फिर बहुत काल तक वहां से निकलना कठिन है, अत: त्रस होकर भी पंचेन्द्रिय होना दुर्लभ है पंचेन्द्रियों में भी संज्ञी पंचेन्द्रिय आदि होना दुर्लभ है। यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय भी होता है तो बिलाव, चूहा, भेडिय़ा, गृद्ध, सर्प, नेवला, व्याघ्र, सिंह मगरमच्छ आदि क्रूर तिर्यंच हो जाता है। अत: सदा पापरूप परिणाम रहते हैं।
पंडित दौलतराम जी छहढाला में कहते हैं-
बध बंधन आदिक दुख घने, कोटि जीभतें जात न भने।
अर्थात मैं करोड़ जिह्वाओं को बनाकर तिर्यंचों के दुख का वर्णन करूं तो भी नहीं करता। इन दुखों को जीवन पर्यन्त सहन करते-करते जीव के परिणाम अतिसंक्लेशित रहे हैं।
क्रमश: