आदमी के भीतर इतना कुछ छिपा है, जिसका कोई हिसाब नहीं और उसी रहस्य को जानने की शुरूआत है आर्जव। प्रज्ञा की ऋजुता जीवात्मा को पूर्ण ज्ञान का मालिक बना देती है। हमारे भीतर विद्युत से भी बड़ी ताकतें प्रज्जवलित है किन्तु इनको हम जानते नहीं कि ये क्या है?
जिन्दगी को प्रयोगशाला बनाए
अपनी जिन्दगी को एक प्रयोगशाला बनाईये और भीतर की उन सारी ताकतों को जानने, निरीक्षण करने और पहचानने के प्रयास में संलग्र हो जाइए। यदि कपट का भाव आए तो उसे भी जानिए और आर्जव का भाव आए तो उसे भी जानिए। दोनों में भेद रेखा अवश्य रखिए एक विभाव है तो दूसरा स्वभाव। जब आप विभाव के ज्ञाता दृष्टा बन जाए, कुछ प्रतिक्रिया न करें तो निश्चय ही माया निष्प्रभावी हो जाएगी और सरलता मुखर हो उठेगी। सरलता को पाने के लिए वक्रता का कवच तोडऩा होगा। ठीक वैसा जैसा मधुर नारिकेल को पाने के लिए उसके ऊपर चढ़े लकड़ी के कठोर कवच को तोडऩा पड़ता है।
जब दिल के बाग में सरलता की सुन्दर कोंपलें परित: प्रस्फुटित होने लगती हैं और करुणा के किसलय महकने लगते हैं तब मन देवालय और विचार देवता बनते हैं और कुटिलता की कुरुप देवी कूच कर जाती है। जीवन दूसरों की शुभारंभ का मंगल धाम बन जाता है।
दूसरी ओर दिल के बाग में जब मायाचार की खरपतवार चारों ओर उंग आती है तब मन बाग का सौन्दर्य कुरुप हो जाता है और दिल से दया का देवदूत दुत्कार कर निकाल दिया जाता है। परिणामत: अन्तस्तल की सम्वेदना और सहानुभूति के फव्वारे सुख जाते हैं और जिन्दगी को रेगिस्तान या बंजर बाग बनने में वक्त नहीं लगता।
हृदय में स्थित करुणा पर कठोरता की परतें वक्रता के कारण आती हैं। जब उन परतों की संख्या बढऩे लगती है तब परदुख कातरता का ग्राफ घटने लगता है। वाणी का माधुर्य कठोरता के उच्च स्वर में परिवर्तित हो जाता है। अपने कष्टों व बचावों की दलीलें पेश होने लगती हैं और दूसरे के कष्टों को अनदेखा कर दिया जाता है।
आचार्य कहते हैं- जहां स्वयं के कष्टों के प्रति दिल पिघलता है वहां निश्चित स्वार्थ है और जहां पर के कष्ट में दिल द्रवित होता है वहां करुणा है। स्वार्थ माया का जनक है और परमार्थ ऋजुता है अतएव बात इतनी मधुर रखो कि कभी वापिस लेना पड़े तो खुद को कड़वी न लगे।
क्रमश: