It is necessary to stop hate statements

Editorial: नफरती बयानों का बंद होना जरूरी, राजनीति में आए मृदुता  

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It is necessary to stop hate statements

It is necessary to stop hate statements भारतीय राजनीति में कुछ समय पहले तक यह शोर था कि धर्म और राजनीति एक हो गई है और ऐसे में दोनों को अलग करने की जरूरत है। हालांकि फिर कुछ ज्वार पैदा हुआ कि यह मांग उसमें बह गई। अब ऐसा दौर है कि मालूम ही नहीं हो रहा है कि धर्म में राजनीति है या फिर राजनीति में धर्म। अब तो सर्वोच्च न्यायालय अगर भगवान श्रीराम का मंदिर बनाने के पक्ष में फैसला सुनाता है तो उसे भी सरकार की ओर से संपन्न कराया गया एक कार्यक्रम बता दिया जाता है।

खैर, धर्म और राजनीति का यह घालमेल भारतीय समाज और संस्कृति को प्रभावित करने लगा है। अब धर्म के जरिये राजनीति हो रही है, और राजनीति के जरिये धर्म को परिभाषित किया जा रहा है। ऐेसे में सर्वोच्च न्यायालय की यह नसीहत गौर फरमाने लायक है कि धर्म और राजनीति को अलग रखे जाने की जरूरत है। माननीय अदालत का यह भी कहना है कि राजनीति में धर्म का इस्तेमाल बंद होते ही नफरती भाषण भी खत्म हो जाएंगे।

वास्तव में यह कहना सही है कि नफरती भाषण दुश्चक्र की भांति हैं, पहले एक व्यक्ति इसे देगा और फिर दूसरा इससे आगे बढक़र कुछ और बात कहेगा। एक राजनीतिक दल की प्रवक्ता की ओर से टीवी पर बहस के दौरान धर्म संबंधी टिप्पणी पर पूरी दुनिया में किस प्रकार नफरती माहौल बन गया था और दो लोगों की इसमें हत्या हो गई थी, वह सभी ने देखा है। अगर ऐसे शब्दों, वाक्यों और भाषणों का प्रयोग न हो तो फिर संभव है, किसी को भडक़ने का मौका ही नहीं मिलेगा। लेकिन सवाल यह है कि इसकी शुरुआत कौन करेगा?

देश के अंदर पिछले कुछ समय के दौरान नफरत भरे भाषणों की जैसी बाढ़ आ गई है। किसी भी राजनीतिक दल के नेता या पदाधिकारी की ओर से ऐसा अनुशासन नहीं रखा जा रहा है कि वह अपनी कही बातों को सेंसर करके और पूर्ण रूप से विचार करके उसे व्यक्त करे। एक राजनीतिक दल के नेता, पदाधिकारी अगर कोई बात कहते हैं तो उसे जवाब में तुरंत दूसरे दल की ओर से ऐसी बात कह दी जाती है जोकि उससे भी ज्यादा गंभीर और समाज विभाजक होती है। अनेक राज्यों में तो ऐसे बयानों की वजह से ही दंगे जैसी स्थिति पैदा हो जाती है।

सरकार का धर्म सभी धर्मों को समान नजर से देखने और स्वतंत्रता को बनाए रखने का है लेकिन सरकार में बैठे लोग ही बहुत बार ऐसे बयानों के साथ सामने आते हैं जोकि समाज में नफरत पैदा करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अगर नफरती भाषणों पर सरकार की ओर से कार्रवाई नहीं किए जाने पर रोष जताया है तो यह स्वाभाविक घटना है। वास्तव में यह जिम्मेदारी महज न्यायपालिका की ही नहीं है कि देश में क्या चल रहा है, उसके लिए दिशा निर्देशन देती रहे, यह कार्य राज्य का है कि वह यह देखे कि व्यवस्था कायम कायम है या नहीं। माननीय शीर्ष अदालत का यह कहना व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह है कि हम इस मामले को सुन रहे हैं, क्योंकि राज्य समय पर कार्रवाई नहीं कर रहे, ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य शक्तिहीन बन गया है और समय से कार्रवाई नहीं करता। गौरतलब है कि यह सब तर्क-वितर्क केरल निवासी एक याचिकाकर्ता की ओर से सिर्फ एक राज्य और एक धर्म के नफरती भाषणों का मुद्दा उठाए जाने पर सवाल उठाया।
 

वास्तव में यह सब तकनीकी है कि फलां राज्य ने नफरती भाषण पर कार्रवाई की या नहीं। यह ऐसी बहस है जोकि शायद ही कभी खत्म हो। हालांकि माननीय शीर्ष अदालत ने इस दौरान जो अन्य बातें कहीं हैं, वे अगर व्यवहार में शामिल कर ली जाएं तो समाज और राजनीति दोनों सुधर जाएंगे। फिर संभव है धर्म और राजनीति को अलग करने की बात कहने की भी जरूरत न रहे। क्योंकि धर्म जीवन में सद् राह पर चलने को प्रेरित करता है, और अगर कोई सद् राह पर है, तो फिर वह समाज में भी सद् आचरण से चलेगा और राजनीति में भी इसका पालन करेगा।

माननीय शीर्ष अदालत का यह कहना सही है कि रोजाना दूसरे धर्म के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली कैसी-कैसी बातें होती हैं। शीर्ष अदालत ने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बेहतरीन वक्ता होने का भी उदाहरण दिया। जाहिर है, ऐसे नेता अपने एक-एक शब्द पर मेहनत करते थे और वे कुछ ऐसा बयान नहीं देते थे जोकि दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुुंचाए। यही मर्यादा उन्हें श्रेष्ठतम बनाती है। वास्तव में भारतीय राजनीति में आजकल जैसा बवंडर कायम है, उसके पीछे भाषा की मर्यादा का क्षीण होना है। अगर तथ्यों पर और विचार करके बात कही जाएगी तो यह बेहद असरकारी होगी। यह जरूरी है कि हम अगर खुद को एक महाशक्ति देखना चाहते हैं तो फिर भाषा की मर्यादा और कानून का सम्मान करें। 

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