चरमपंथ के दोहरे बोझ तले भारतीय मुसलमान, आतंकवाद की मार और बढ़ते इस्लामोफोबिया के बीच संतुलन की जंग

चरमपंथ के दोहरे बोझ तले भारतीय मुसलमान, आतंकवाद की मार और बढ़ते इस्लामोफोबिया के बीच संतुलन की जंग

Indian Muslims are caught between the double burden of Extremism

Indian Muslims are caught between the double burden of Extremism

भारतीय मुस्लिम समुदाय इस समय जिन परिस्थितियों से गुजर रहा है, वे न केवल चुनौतीपूर्ण हैं, बल्कि कई स्तरों पर गहन आत्ममंथन और संगठित प्रयासों की भी मांग करती हैं। एक ओर कुछ चरमपंथी तत्वों द्वारा किए गए आतंकवादी हमले, जैसे अप्रैल 2025 का पहलगाम हमला और हालिया लाल किले का धमाका देश को दहला देते हैं और निर्दोष लोगों की जान लेते हैं, वहीं दूसरी ओर इन घटनाओं के बाद समाज में मुसलमानों के प्रति अविश्वास, संदेह, सामाजिक दूरी और इस्लामोफोबिया की आग तेज हो जाती है। परिणामस्वरूप, मदरसों से लेकर सामाजिक संस्थानों तक, और प्रवासी मजदूरों से लेकर आम नागरिकों तक पूरा समुदाय बिना किसी कारण शक के घेरे में आ जाता है।

सच्चाई यह है कि भारत ही नहीं, दुनिया भर में मुसलमानों की भारी संख्या आतंकवाद, हिंसा और किसी भी प्रकार की बर्बरता की खुलकर निंदा करती है। इस्लाम की बुनियादी शिक्षाएँ—रहमत, इंसाफ, अमन और इन्सानियत—किसी भी प्रकार के आतंक से स्पष्ट विरोध में खड़ी हैं लेकिन कुछ भटके हुए तत्वों की हरकतें न केवल देश के लिए खतरा बनती हैं, बल्कि इस्लाम की छवि को भी गलत तरीके से प्रस्तुत करती हैं और पूरे समुदाय पर राष्ट्रभक्ति व शांति-प्रतिबद्धता साबित करने का अनुचित दबाव बढ़ा देती हैं। यही वह दोहरा संकट है एक तरफ आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई और दूसरी तरफ उसके कारण पैदा होने वाले पूर्वाग्रहों व भेदभाव का मुकाबला।

ऐसे माहौल में आवश्यकता है कि भारतीय इस्लामी समुदाय एक व्यापक, संगठित और बहुआयामी रणनीति अपनाए। आज जरूरत है कि हम अपने सूफीवाद, बहुलवाद और सह-अस्तित्व की उस समृद्ध विरासत को दुनिया के सामने रखें, जिसने सदियों से भारतीय इस्लाम को करुणा, सहिष्णुता और मानवता से जोड़ा है। यह विरासत न केवल हमारी पहचान है, बल्कि चरमपंथ के विरुद्ध सबसे प्रभावशाली वैचारिक ढाल भी है। इसके लिए एक वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर संगठित प्रयास जरूरी है। प्रवासी भारतीय मुसलमान, सामाजिक संस्थान, नागरिक समाज और युवा मिलकर एक ऐसे चार्टर की वकालत कर सकते हैं जो आतंकवाद को मानवता और वैश्विक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा घोषित करे। साथ ही, दयालु इस्लाम की अवधारणा को विश्व पटल पर और मजबूती से स्थापित किया जा सकता है एक ऐसा इस्लाम जो प्रेम, न्याय, संवाद और सम्मान पर आधारित है।

चरमपंथी विचारधाराओं का मुकाबला केवल सुरक्षा उपायों से नहीं, बल्कि बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रयासों से भी होता है। धार्मिक विद्वानों, इमामों, शिक्षण संस्थानों और सामाजिक संगठनों को मिलकर युवाओं तक सही धार्मिक शिक्षाएँ पहुंचानी होंगी। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म, बहुभाषी साहित्य, जन-जागरूकता अभियान और सेमिनार ये सभी उपकरण चरमपंथ के वैचारिक भ्रम को दूर करने के लिए प्रभावी माध्यम बन सकते हैं। परिवारों, मस्जिदों और सामुदायिक मंचों को भी युवाओं की मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक जरूरतों पर अधिक संवेदनशील होकर काम करना होगा, ताकि कोई भी युवा गलत दिशा में न जाए। साथ ही, इस्लामोफोबिया के बढ़ते प्रभाव को अनदेखा करना भी खतरनाक है। किसी भी आतंकी घटना के बाद यदि पूरी कौम को संदेह की दृष्टि से देखा जाए, उन्हें अपमान, भेदभाव या सामाजिक अलगाव का सामना करना पड़े तो यह असंतोष और आंतरिक घावों को और गहरा करता है। इसलिए, मुस्लिम समुदाय को राष्ट्रीय बहसों में सक्रिय भागीदारी, संवाद कार्यक्रम, सामाजिक गठबंधन और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में दृढ़ उपस्थिति के जरिए इस प्रवृत्ति का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रतिरोध करना होगा।

सुधार भी समय की मांग है। धार्मिक शिक्षा, संस्थागत ढांचे और सामाजिक नेतृत्व में जहाँ भी आवश्यक हो, आधुनिक एवं समावेशी दृष्टिकोण को अपनाया जाना चाहिए। सुधार का अर्थ कमज़ोरी नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और आगे बढ़ने की क्षमता का प्रतीक होता है।
अंततः, आतंकवाद और कट्टरपंथ किसी एक धर्म या समुदाय का मुद्दा नहीं—यह राष्ट्रीय और वैश्विक चिंता है। लेकिन भारतीय मुसलमान अपनी ऐतिहासिक विरासत, आध्यात्मिक परंपरा और सांस्कृतिक विविधता के साथ इस चुनौती से न केवल उभर सकते हैं, बल्कि शांति, सद्भाव और मानवता का मार्ग भी दिखा सकते हैं। जरूरत केवल इतनी है कि हम एकजुट होकर, संवाद को बढ़ावा देते हुए और अपनी अमन-पसंद परंपरा को दुनिया के सामने रखकर इस कठिन समय में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाएँ। यदि हम अपनी पहचान—इंसानियत और अमन—को मजबूत बनाए रखें, तो न केवल यह संकट टल जाएगा, बल्कि एक अधिक न्यायपूर्ण, शांतिपूर्ण और सह-अस्तित्वपूर्ण भविष्य की नींव भी रखी जा सकेगी।

(लेखक : मौलाना सईदूर रहमान, कैथल मदनी  मदरसा के संचालक और जमियत उलेमा ए हिंद के कैथल जिलाध्यक्ष हैं।)