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Editorial: किसान संगठनों को दूर करने होंगे मतभेद, नहीं तो राह होगी मुश्किल

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Farmer organizations will have to resolve differences

Farmer organizations will have to resolve their differences, otherwise the path will be difficult: एमएसपी की सरकारी गारंटी की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे किसान संगठनों के बीच मतभेद उभरना दुर्भाग्यपूर्ण है, वहीं केंद्र सरकार के साथ चार मई को होने वाली बैठक में पंजाब सरकार के प्रतिनिधियों को न बुलाने संबंधी किसान संगठनों की मांग भी अव्यवहारिक जान पड़ रही है। यह आंदोलन किसानों को उनका हक दिलाने के लिए है, लेकिन अब जहां आंदोलन कई गुटों में बंट चुका है, वहीं 131 दिनों तक अनशन कर चुके जगजीत सिंह डल्लेवाल के अनशन पर भी सवाल उठाकर किसान नेता का उपहास बनाने की शर्मनाक कोशिश की गई है।

पंजाब एवं पूरे देश ने देखा है कि संयुक्त किसान मोर्चा गैर राजनीतिक के नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल का जीवन संकट में पड़ गया था। खुद सुप्रीम कोर्ट ने उनके स्वास्थ्य की निगरानी की है और उनसे अनशन समाप्त करने का आह्वान भी। हालांकि कुछ किसान नेताओं की मानसिकता इतनी निम्न हो गई है कि उन्होंने अनशन पर सवाल उठाते हुए आशंका जताई है कि अनशन किया भी गया था या नहीं। निश्चित रूप से आंदोलन के अंदर विभिन्न मत और विचार के लोग हो सकते हैं, लेकिन इस कदर संवेदनहीन होने से किसी को क्या मिलेगा। अब आंदोलन में आए राशन और फंड का ब्योरा नहीं होने संबंधी आरोप भी सामने आ रहे हैं। संभव है, यह सब आरोप उन किसान नेताओं की ओर से लगाए जा रहे हैं, जोकि किसी न किसी वजह से अप्रासंगिक हो गए हैं।

अभी तक केंद्र सरकार एवं किसान नेताओं के बीच ही आंदोलन की जंग जारी थी, लेकिन अब किसान नेताओं ने पंजाब सरकार को भी खुद से दूर कर लिया है। ऐसा बीते समय के दौरान हुआ, जब शंभू बॉर्डर पर बैठे किसानों को पंजाब सरकार ने बल प्रयोग करके हटवा दिया था। जाहिर है, ऐसा किया जाना जरूरी था, क्योंकि किसानों के धरने की वजह से जनसामान्य के लिए हालात बेहद खराब हो गए थे। पूरा इलाका अस्त व्यस्त हो चुका था और अदालत भी यह कार्रवाई करने के आदेश दे चुकी थी।

हालांकि अब किसान संगठन चाहते हैं कि केंद्र के साथ होने वाली चर्चा में पंजाब सरकार को न बुलाया जाए। जबकि पंजाब सरकार का कहना है कि उसे बातचीत से अलग करके किसान संगठन केंद्र सरकार का दबाव नहीं झेल पाएंगे। उसका यह भी कहना है कि किसान संगठनों के पास केंद्र के सवालों का तथ्यात्मक जवाब नहीं होता, जबकि पंजाब सरकार के प्रतिनिधि यह जवाब देने में सक्षम हैं। सरकार का यह भी कहना है कि वह किसानों के कहने पर बैठक में नहीं जाती और न ही अपने आप इसमें शामिल होती। वह केंद्र सरकार के कहने पर बैठक में शामिल होती है।

 दरअसल, किसानों और पंजाब सरकार के बीच बातचीत का तारतम्य टूटना दुखद रहा है। यह अपने आप में अप्रत्याशित भी रहा कि एकाएक शंभू बॉर्डर पर बैठे किसानों को हटा दिया गया। बीते दो साल के करीब किसानों ने यहां डेरा डाला हुआ था। पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट तक जिस काम के लिए सरकार को निर्देशित कर रहे थे और उसे करते हुए वह झिझक रही थी। उसे उसने अपनी इच्छा से कुछ भी घंटों में कर दिखाया। राज्य सरकार ने जनता को पेश आ रही परेशानियों को बखूबी समझा और उसके मुताबिक किसानों को हटाया। हालांकि इस दौरान उसने किसानों की नाराजगी भी मोल ले ली। अब वही किसान संगठन पंजाब सरकार के विरुद्ध हो गए हैं और उस पर केंद्र सरकार से मिलीभगत का आरोप लगा रहे हैं। पंजाब सरकार का यह तर्क उचित है कि उसके पास तथ्य होते हैं। निश्चित रूप से अनौपचारिक बातचीत में दोनों पक्ष इसके लिए सहमत हो जाएं लेकिन जब बात सरकार की आती है तो उसे तथ्यों के आधार पर फैसला लेना होता है।

तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला पूरी तरह से राजनीतिक था, लेकिन अब एमएसपी पर सरकारी गारंटी देने का फैसला तकनीकी होगा, क्योंकि अगर एमएसपी पर सरकारी गारंटी दी जाती है तो इसका असर पूरे देश और इसकी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। वास्तव में इसकी गुंजाइश बरकरार रहनी चाहिए कि किसान नेताओं के बीच आपसी कटुता पैदा न हो, क्योंकि आखिरकार वे लड़ तो किसान भाइयों के लिए ही रहे हैं न।  वहीं पंजाब सरकार को बैठक में न बुलाने की मांग अतार्किक है। सडक़ पर जाम हटवाना सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन इसी से यह नहीं माना जा सकता है कि पंजाब सरकार किसानों से वैर रखती है। उस समय उसने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई, लेकिन अब वह किसानों के व्यापक हित में काम करना चाहती है। किसान संगठनों और पंजाब सरकार के बीच तारतम्य का होना आवश्यक है। 

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