The process of election commissioners should be transparent!

चुनाव आयुक्तों की प्रक्रिया पारदर्शी हो!

The process of election commissioners should be transparent!

The process of election commissioners should be transparent!

The process of election commissioners should be transparent!- देश में (Election Commision) चुनाव आयोग के कामकाज को लेकर (Political Party) राजनीतिक दलों में सदैव से कौतूहल रहा है। इस संवैधानिक संस्था पर नेताओं का प्रभाव हमेशा से दिखता आया है। अब (Supreme Court) सर्वोच्च न्यायालय अगर यह कह रहा है कि आयोग को राजनीतिक प्रभाव से बेअसर रहना चाहिए तो यह समय की मांग है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, उसका यह (democracy election commission) लोकतंत्र निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता पर आधारित है। ऐसे में यह आवश्यक है कि (Election Commision) चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और उसकी (constitutional sanctity) संवैधानिक पवित्रता कायम रहे। गौरतलब यह भी है कि (Supreme Court) सर्वोच्च न्यायालय ने एक समय मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषण को याद किया और प्रत्येक (election commissioner) चुनाव आयुक्त को उनके जैसा होने की दरकार की। शेषण अपने दौर की (Governemts) सरकारों में यह देख चुके थे कि किस प्रकार चुनाव आयुक्तों को सरकार अपनी तरह से मैनेज करती थी। हालांकि जब उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में काम करने का मौका मिला तो उन्होंने इस पद की परिभाषा ही बदल दी थी। शेषण चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की गरिमा को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचाने में सक्षम रहे थे।

(Supreme Court Noticed) सर्वोच्च न्यायालय ने इसका नोटिस लिया है कि (chief election commissioner) मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) के कार्यकाल की कम अवधि का बुरा असर चुनाव सुधारों पर पड़ रहा है और इससे आयोग की स्वतंत्रता भी प्रभावित हुई है। वास्तव में 1950 से लेकर 1996 तक शुरुआती 46 वर्षों में देश में 10 निर्वाचन आयुक्त हुए। यानी इनका औसत कार्यकाल करीब साढ़े चार साल का निकलता है। इसके बाद के 26 वर्षों में 10 चुनाव आयुक्त नियुक्त किए गए हैं। इनका औसत कार्यकाल करीब ढाई साल बनता है। हालांकि (chief election commissioner) मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में टी एन शेषन का कार्यकाल सबसे ज्यादा लंबा और चर्चित रहा।  अब देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने में चुनाव आयोग कितनी अहम भूमिका निभाता है यह बात रेखांकित हुई शेषन के कार्यकाल में। आश्चर्य नहीं कि छह साल का संविधान द्वारा तय कार्यकाल पूरा करने वाले वह आखिरी (election commissioner) चुनाव आयुक्त साबित हुए। हालांकि संवैधानिक व्यवस्था अब भी यही है कि मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्ति के दिन से छह वर्ष की अवधि या 65 साल की उम्र होने तक (जो भी पहले हो) अपने पद पर रहेंगे। चूंकि ज्यादातर चुनाव आयुक्त नौकरशाह ही रहे हैं, इसलिए उनके (Retirement) रिटायरमेंट की उम्र पहले से पता होती है। जाहिर है कोई सरकार इसे स्वीकार करे या न करे, चयन ही इस तरह से होता रहा है कि किसी को भी इस पद पर ज्यादा समय न मिले। नतीजतन, कोई भी चुनाव आयुक्त अपने विजन को कार्यान्वित करने का मौका नहीं पाता

(Supreme Court) सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ध्यान दिलाया कि चूंकि संविधान में (chief election commissioner) मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया तय नहीं की गई है और यह काम संसद पर छोड़ा गया है, ऐसे में तमाम सरकारें संविधान की इस चुप्पी का फायदा उठाती रहीं। फायदा उठाने की बात इसलिए भी कही जा सकती है क्योंकि ऐसा नहीं है कि सरकार के सामने इसे तय करने की कोई बात आई ही न हो। आंतरिक प्रस्तावों, सुझावों को छोड़ दें तो भी कानून आयोग 2015 की अपनी रिपोर्ट में कह चुका है कि मुख्य चुनाव आयुक्त समेत सभी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति तीन सदस्यीय चयन समिति की सिफारिशों के आधार पर होनी चाहिए, जिसमें प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष (या लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता) के अलावा देश के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हों। बावजूद इसके सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के सख्त रवैये के बाद अब उम्मीद की जानी चाहिए कि यह मामला अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचेगा।

वास्तव में यह आवश्यक है कि  (chief election commissioner) मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की एक ऐसी प्रणाली निर्धारित हो, जिसमें सबसे उपयुक्त और निष्पक्ष अधिकारी ही इस पद को संभाले। अदालत में दायर याचिका में तो प्रधानमंत्री, भारत के प्रधान न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता के तीन सदस्यीय कॉलेजियम को बनाने की मांग की गई है। अब अदालत ने इसी संदर्भ में नए चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति की फाइल मांगी है। दरअसल, नियुक्ति की मौजूदा प्रक्रिया के तहत सरकार जिसको चाहे चुनाव आयोग का सदस्य बना देती है, लेकिन नेता प्रतिपक्ष को शामिल करने के बाद सरकार की आजादी पर अंकुश लगेगा और कोई भी सरकार इसे नहीं छोडऩा चाहती है। यह भी सच है कि हर नया चुनाव आयुक्त सरकार को खुश करने में लग जाता है क्योंकि उसे पता है कि वो सीईसी बनेगा या नहीं यह सरकार की मर्जी पर ही निर्भर करता है।

लोकतंत्र की आजादी, चुनाव सुधारों और चुनाव आयोग पर उठने वाले सवालों का समाधान आवश्यक है। एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव आयोग के बूते ही लोकतंत्र की प्रखरता कायम रह सकती है। भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने चुनाव तंत्र को और मजबूत और सुदृढ़ करे। इसके लिए मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना होगा। 

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