Politicians started coming and going to the house of Bageshwar government

बागेश्वर सरकार के घर राजनेताओं का आना-जाना शुरू, क्या राजनीति से जुड़ रहे बाबा; या करेंगे मदद, पढ़ें क्या है पूरा मामला

Politicians started coming and going to the house of Bageshwar government

Politicians started coming and going to the house of Bageshwar government

Politicians started coming and going to the house of Bageshwar government- मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव शुरू होने में अब कुछ ही दिन बाकी रह गए हैं। जिसके मद्देनजर चुनावी सरगर्मियां तेज हो गई हैं। वहीं साधु संतों का राजनीति से पुराना नाता है। 

आजकल जाने माने बाबा बागेश्वर सरकार भी अब राजनीतिक सपोर्ट में आते दिखाई दे रहे हैं। ताजा मिले समाचारों के अनुसार पिछले दिनों राज्य कांग्रेस के प्रमुख कमलनाथ और बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री के बीच हुई मुलाकात सुर्खियों में है। 

मुलाकात को भले कमलनाथ औपचारिक बता रहे हों, लेकिन हिंदुत्व और राजनीति की कॉकटेल वाली मध्य प्रदेश की सियासत में बाबाओं और नेताओं का गठजोड़ पुराना है। साधु-संत पहले जमीन पर पकड़ बनाते हैं और फिर धर्म का तडक़ा लगाकर नेताओं को कुर्सी तक पहुंचाते हैं। कुर्सी पर पहुंचने के बाद राजनेता भी इस कर्ज को बखूबी अदा करते हैं।

कथावाचक उमा भारती के सियासी उदय के बाद मध्य प्रदेश की राजनीति में संत भी खुद सक्रिय होने लगे। इनमें कम्प्यूटर बाबा, भैय्यूजी महाराज, हरिहरनंद जी महाराज आदि शामिल हैं। हाल ही में बागेश्वर सरकार के दरबार में भी नेताओं का आना-जाना तेज हो गया है, जिसके बाद उनके सियासी करियर को लेकर भी चर्चा शुरू हो गई है।

ऐसे में सवाल उठता है कि मध्य प्रदेश की सियासत में साधु-संत क्यों सक्रिय होते हैं और इनका बोलबाला कैसे बढ़ता जाता है? आइए इस स्टोरी में विस्तार से जानते हैं।।।

सत्ता के लिए साधु-संत क्यों जरूरी?

माहौल बनाने का काम करते हैं- अधिकांश कथा वाचक या साधु-संत फर्राटेदार बोलते हैं। ऐसे में वे चुनावी साल में राजनीतिक दलों के लिए माहौल बनाने का काम करते हैं। कम्प्यूटर बाबा पहले बीजेपी की शिवराज सरकार के पक्ष में माहौल बना रहे थे, लेकिन आश्रम पर छापे पडऩे के बाद घूम-घूमकर सरकार के विरोध में बयान दे रहे हैं।

चुनावी सालों में राजनीतिक दलों को ऐसे लोगों की विशेष जरूरत होती है, जो किसी मुद्दे पर जनता के बीच माहौल तैयार करें। साधु-संत इस काम को बखूबी से अंजाम देते हैं, जिस वजह से राजनीतिक दलों को संतों खूब भाते हैं।

2018 में नर्मदा और क्षिप्रा सफाई को संतों ने ही मुद्दा बनाया था, जिसका उज्जैन, भोपाल, नर्मदापुरम आदि जिलों में खूब असर हुआ। महाकौशल प्रांत में बीजेपी को नुकसान का भी सामना करना पड़ा था। 

कथा के जरिए जमीनी प्रचार- बुंदेलखंड, निमाड़ और मालवा भाग में कथा का बहुत ही ज्यादा प्रचलन है। ऐसे में इन इलाकों में जो पॉपुलर कथावाचक होते हैं, राजनेता उन्हें बुलाकर कथा करवाते हैं। 

भागवत कथा के दौरान कथावाचक नेताओं का खूब गुणगान करते हैं, जिससे लोगों के बीच बढय़िा प्रचार हो जाता है। इतना ही नहीं, कई संत नेताओं को पार्टी का टिकट दिलाने में भी मदद करते हैं। सत्ता में आने के बाद नेता भी संतों और कथावाचकों का कर्ज उतारने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं।  

समर्थकों से वोट की अपील- एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश की 230 में 100 विधानसभा सीटें ऐसी है, जहां किसी न किसी संत और आश्रम का प्रभाव है। ऐसे में चुनावी साल में सत्ता के लिए ये सभी संत और आश्रम नेताओं के लिए जरूरी हो जाते हैं।

कई बार संत सीधे तौर पर वोटरों से किसी पार्टी के पक्ष में वोट करने की अपील करते हैं, तो कई बार अंदरूनी तौर पर संदेश भेज देते हैं। दोनों ही सूरत में राजनीतिक दलों को फायदा होता है। 
करीबी मुकाबलों में संतों की भूमिका और ज्यादा बढ़ जाती है। हर चुनाव में 30-40 सीटें ऐसी रहती है, जहां जीत का मार्जिन 5-10 हजार के बीच रहता है।