"एक देश, एक चुनाव: मोदी सरकार की चुनौती"
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एक देश, एक चुनाव: मोदी सरकार के लिए कितना कठिन, कितना साध्य

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"एक देश, एक चुनाव: मोदी सरकार की चुनौती"

एक देश, एक चुनाव: मोदी सरकार के लिए कितना कठिन, कितना साध्य

जब मुंबई में विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया की तीसरी बैठक हो रही थी, उसी दिन केंद्र सरकार ने 'एक देश, एक चुनाव' के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाने की घोषणा की।

इससे एक दिन पहले, केंद्र सरकार ने 18 से 22 सितंबर के बीच संसद का विशेष सत्र बुलाने की घोषणा की, हालांकि एजेंडा के बारे में सरकार ने कुछ नहीं कहा।

इन घोषणाओं के बाद, राजनीतिक हलकों में सरकार के अगले कदम को लेकर कयासबाज़ी भी शुरू हो गई और विपक्षी दलों ने तीखी प्रतिक्रिया दी।

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता कमलनाथ ने कहा, "ये महज़ संविधान में संशोधन नहीं है, इसके लिए राज्यों की सहमति की भी ज़रूरत होगी। "उनका कहना था, "बीजेपी शासित राज्यों जैसे हरियाणा और महाराष्ट्र में तो विधानसभा भंग कर दी जाएगी, लेकिन बाकी (राज्यों में) विधानसभा के कार्यकाल को ऐसे कम नहीं किया जा सकता।"

"प्रह्लाद जोशी ने कहा, 'कमेटी बना ली गई है, घबराने की कोई जरूरत नहीं है। इसकी रिपोर्ट कल तक आएगी, हमने ऐसा कहा नहीं है।'"

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क्या है सरकार का इरादा?

संसद का मॉनसून सत्र 11 अगस्त को ही ख़त्म हुआ है, और इस बात पर हैरानी जताई जा रही है कि अचानक संसद का 'स्पेशल सेशन' क्यों बुलाया गया है। इसी साल, नवंबर-दिसंबर में मिज़ोरम, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसके बाद अगले साल मई-जून में लोकसभा चुनाव होने हैं। तो ऐसे में 'वन नेशन वन इलेक्शन' की बात अभी क्यों उठाई जा रही है? राजनीतिक गलियारे में कहा जा रहा है कि पांच दिन के विशेष सत्र के दौरान कुछ महत्वपूर्ण विधेयक पेश किए जा सकते हैं, इनमें महिला आरक्षण बिल जैसे मुद्दे भी हो सकते हैं। लेकिन वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक विनोद शर्मा का मानना है कि ये एक किस्म का 'डायवर्ज़न' है।"

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एक साथ चुनाव का फ़ायदा किसे होगा?

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह का कहना है कि 'वन नेशन, वन इलेक्शन' अब ज्यादा मौजूदा बात नहीं है. इसकी कोशिश 1983 से शुरू हो गई थी और तब इंदिरा गांधी ने इसको नकारा दिया था.

लेकिन नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, तब से यह मुद्दा बार-बार उठा रहा है. बीजेपी के 2014 के घोषणा पत्र में भी इसका ज़िक्र था.

प्रदीप सिंह कहते हैं, "चुनावों में ब्लैक मनी का बड़े पैमाने पर उपयोग होता है और एक साथ चुनाव होने पर इसमें कमी आएगी. दूसरे चुनाव के खर्च का बोझ कम होगा, समय बचेगा, और पार्टियों और उम्मीदवारों पर खर्च कम होगा."

वो कहते हैं, "पार्टियों के लिए सबसे बड़ा बोझ इलेक्शन फ़ंड का होता है. ऐसे में छोटी पार्टियों को इसका फायदा मिल सकता है क्योंकि विधानसभा और लोकसभा के लिए अलग-अलग चुनाव प्रचार नहीं करना पड़ेगा."

यह कहा जा रहा है कि एक साथ चुनाव कराने से सबसे अधिक फ़ायदा बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों जैसे बीजेपी और कांग्रेस को होगा. और छोटी पार्टियों के लिए एक साथ कई राज्यों में स्थानीय और लोकसभा चुनाव प्रचार करना कठिन हो सकता है.

प्रदीप सिंह कहते हैं, "अगर ऐसा होता है, तो बीजेपी और एनडीए का सबसे बड़ा फ़ायदा यह होगा कि प्रधानमंत्री को प्रचार करने का समय मिलेगा और वे प्रचार को फोकस कर सकेंगे. प्रधानमंत्री अभी भी सबसे पसंदीदा चेहरा हैं और उनकी अपील है. सबसे बड़ी बात कि उन्हें हर छह-आठ महीने में पसीना नहीं बहाना पड़ेगा."