समाज द्वारा बनाये गये सभी छोटे-बड़े संगठनों में से कोई भी ऐसा नहीं है जिसका समाजशास्त्रीय दृष्टि से उतना अधिक महत्व है जितना परिवार का। वह सामाजिक जीवन को असंख्य रीतियों से प्रभावित किया करता है और जब-जब इसमें कोई परिवर्तन होते हैं तब-तब समाज की रचना में भी उसी अनुपात में परिवर्तन हो जाया करते हैं। आर्थिक-सामाजिक बदलाव का सबसे ज्यादा दबाव परिवारों पर है। परिवार नामक संस्था विखंडित हो रही है।
अब नाम मात्र के संयुक्त परिवार बचे हैं जिनमें तीन-चार पीढिय़ां एक साथ रहती हों और न ऐसे आदर्श एकल परिवार बचे हैं जिनके सदस्य सुखपूर्वक एक साथ रहते हों। शहरों में दो पीढ़ी वाले एकल परिवार ही ज्यादा नजर आते हैं, इस एकल परिवार में भी समस्याएं बढ़ रही है। एकल परिवारों से माता-पिता भी परिवार से बेदखल हो रहे हैं। जिन्दगी व्यस्त होती जा रही है। ये शब्द मनीषी संत मुनिश्री विनय कुमार जी आलोक ने सैक्टर 18सी गोयल भवन 1051 मे में कहे।
मनीषी श्रीसंत ने कहा हर रोज व्यक्ति अपनी आस्था के अनुसार किसी न किसी स्थान पर अपने माथे को सजदा करता है चाहे मंदिर हो, संत समागम हो, गुरूद्धारा हो, चर्च हो, मस्जिद हो लेकिन अगर हम मंदिर जैसा पाक साफ बन जाए तो हम खुद ही मंदिर हो जाएंगे। मुर्दे को, फटे दूध को और कचरे को लंबे समय तक घर में नहीं रखते हो तो फिर द्वेष की गांठ को हृदय में बांधकर क्यों रखते हो।
हम प्रतिदिन नए हो रहे हैं। अत: मन से गांठ खोलने का अवसर भी रोज हमें मिल रहा है। अपने हृदय की गांठों को खोलो। अपने हृदय में कोई गांठ मोबाइल की तरह सेव करके मत रखो। इसे तुरंत ही डिलीट कर दो। सरल व निर्दोष हृदय में ही प्रभु प्रवेश करते है। मंदिर जाना सरल है, लेकिन मन को मंदिर बनाना, निर्दोष बनाना उतना ही कठिन है। निर्दोषता का निश्चलता का बलिदान देकर सफलता के पीछे दौडऩा नहीं है। पवित्रता का बलिदान देकर प्रलोभन दे, ऐसे कामों के पीछे भागना नहीं। प्रतिस्पर्धा की होड़ में प्रसन्नता को छोडऩा नहीं है। जिस कार्य को करने से डर लगे या रोना पड़े, ऐसा कोई कार्य ऐसी कोई प्रवृत्ति करना नहीं। अपने गुणों का विस्तार करने की दिशा में सोचें और अपनी कमियों को सुधारने की तरफ ध्यान दें।
मनीषी संत ने अंत मे फरमाया मानव जीवन की सबसे बड़ी विशेषता उसका सामाजिक स्वरूप है। महान यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने कहा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी होने के नाते सभी मनुष्य एक-दूसरे से अंत: क्रिया करते हैं। इस अंत: क्रिया के बिना न तो हम समाज की कल्पना कर सकते हैं, न संस्कृति की और न ही मनुष्य के स्वाभाविक स्वरूप की। परिवार के विकास के इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि इसका आरंभ सबसे पहले संतानोत्पति की दिशा में लक्षित था जो बाद में समाज की एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण प्राथमिक इकाई का रूप धारण करता चला गया।